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________________ 36 1. प्रबन्ध काव्य : प्रबन्ध काव्य के अन्तर्गत महाकाव्य श्रीर खण्डकाव्य दोनों भाते हैं। यहां उनके स्वरूप का विश्लेषण करना हमारा प्रभीष्ट नहीं है पर इतना कथन प्रवश्यक है कि उनके प्रख्यानों का वस्तु-तत्व पौराणिक, निजन्धरी, समसामयिक तथा कल्पित होता है । उनमें लोकतत्व का प्राधान्य रहता है । लोकतत्व गाथात्मक और कथात्मक रहता है। उनके पीछे धार्मिक अनुश्रुतियां, इतिहास और मान्यतायें छिपी रहती हैं। सृष्टि, लय, वंशपरम्परा, मन्वन्तर और विशिष्ट वंशों में होने वाले महापुरुषों का चरित ये पांच विषय पौराणिक सीमा में प्राते हैं। -- सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चैव पुराणं पंच लक्षणम् ॥ कवियों ने जैन धर्म और जैन साहित्य में प्रबन्धकाव्य की परम्परा आदिकाल से ही प्रवाहित होती रही है । जैन प्राचार्यों ने 63 शलाका महापुरुषों के चित्रांकन को अपना विशेष लक्ष्य बनाया है । उनकी जीवन गाथाधों के माध्यम से दर्शन सम्बन्धी विचार अभिव्यक्त किये हैं। इसके बावजूद क्रमबद्धता, गतिशीलता और भावव्यंजना में किसी प्रकार की ने भाषा के क्षेत्र में राजस्थानी, गुजराती और ब्रजभाषा के मिश्रित रूप का प्रयोग किया है । भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से ये काव्य जायसी और तुलसी के काव्यों से हीन नहीं हैं बल्कि कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि जायसी और तुलसी ने प्राचीन जैन प्रबन्ध काव्यों से प्रभूत सामग्री ग्रहणकर अपनी प्रतिभा से अपने समूचे साहित्य को उन्मेषित किया है । प्रबन्ध काव्य में अपेक्षित कमी नहीं श्राई | कवियों पुराण, कथा और चरित काव्य भी प्रबन्ध के अन्तर्गत प्राते है । प्राचार्यों ने इन्हें भी जैन तत्वों को प्रस्तुत करने का माध्यम बनाया है । फिर भी यथावश्यक रसों के संयोजन में कोई व्यवधान नहीं था पाया। कवियों ने यथासमय शृंगार और वीररस का भरपूर वर्णन किया है। पर उसमें भी शान्तरस का भाव सूख नहीं पाया बल्कि कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि शृंगार भूमि में आध्यात्मिक अनुभूति के कारण संसार का चित्रण से प्रस्तुत हुआ है । इनमें सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार की कथाओं भीर चरित्रों का प्रलेखन मिलता है । इस आलेखन में कवियों ने लोक तत्वों की काव्यात्मक रूढ़ियों का भी भरपूर उपयोग किया है । और वीररस की पृष्ठ कहीं अधिक सक्षम रूप जहां तक रासो काव्य परम्परा का सम्बन्ध है उसके मूल प्रवर्तक जैन प्राचार्य ही रहे हैं । जैन रासो काव्य गीत नृत्य परक अधिक दिखाई देते हैं। इन्हें हम खण्डकाव्य के अन्तर्गत ले सकते हैं। कवियों ने इनमें तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों और प्राचायों के चरित का संक्षिप्त चित्रण प्रस्तुत किया है। वही वही ये रासो उपदेश परक भी हुये हैं ।
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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