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________________ 30 संदर्भ में साहित्य में परिलक्षित होता है। इसीलिए हमने विकास को दोना को स्वयंभू से प्रारम्भ करने का सुझाव दिया है। वैसे हिन्दी का यह माविका सही रूप में मुनि शालिभद्र सूरि से प्रारम्भ होता है जिन्होंने भरतेश्वर बाहुबली रास (वि. सं. 1241 सन् 1184) लिखा है । यह रचना इस हिम से प्रथम मानी जा सकती है। श्री अगरचन्द नाहटा ने वासेन और विरचित भरतेश्वर बाहुबली धोर को प्रथम रचना मानने का प्राग्रह किया है पर वह मन्त संक्षप्ति होने के कारण प्रातिनिधिक रचना नहीं कहीं जा सकती। डॉ. विनेश ने सरहपा को हिन्दी का प्रथमतम कवि प्रस्थापित करने का प्रयत्न किया है पर अपने पक्ष में प्रस्तुत तर्क तो फिर स्वयंभू को प्रथमतम कवि मानने को बाध्य कर देते हैं। यहां हमने इन दोनों मतों को समाहितकर हिन्दी के प्रादिकाल को दो भागों में विभाजित किया है प्रथम अपभ्रंश बहुल हिन्दी काल और दूसरा प्रारम्भिक हिन्दी काल प्रथम काल माग का प्रारम्भ स्वयंभू से होता है और दूसरे को शालि भद्र सूरि से प्रारम्भ किया है । स्वयंभू मापनीय संघ के प्राचार्य थे । वे कोसल के मूल निवासी थे पर उनका कार्य क्षेत्र मान्यखेट अधिक रहा जहां वे राष्ट्रकूट राजा ध्रुव (वि. सं. 837-851) के मंत्री रयडा धनंजय के प्राग्रह पर पहुंचे। स्वयंभू के दो ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं- पउमचरिउ और रिट्ठमिचरिउ (हरिवंश पुराण) । इन दोनों के अन्तिम भागों को ये पूरा नहीं कर सके। उन्हें पूरा किया उनके कनिष्ठ पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू ने । ब्राह्मण परम्परा में पले-पुसे कवि ने जैन परम्परा को स्वीकारा और उसी के अनुरूप ग्रन्थ रचना की । अलौकिकता से दूर उनके ग्रन्थ राम, कृष्ण, परिष्टनेमि जैसे महापुरुषों की मानवीय दुर्बलताओं को अभिव्यक्त करने में संकोच का अनुभव नहीं करते । संस्कृत काव्य परम्परा से जुड़े हुये इन अलंकृत काव्यों में सभी रसों का समान प्रवाह हुआ है । इन काव्यों की भाषा में लीक भाषा का भी प्रयोग काफी हुआ है। सेहरु, घवघवंति, घोलइ, भिडिय, खलद, बलद, गुंजा, आदि जैसे शब्द प्रारम्भिक हिन्दी की ओर यात्रा करते हुए प्रतीत होते हैं। उदाहरणतः --- तो भिडिय परोप्परु रणकुसल । विषिण वि सव- गाय सहास बन । विवि गिरि तुरंग सिंग- सिहर । विष्णि वि जल-हरख यहिर-जिर ॥ (हरिवंशपुरा) स्वयंभू के बाद पुष्पवंत प्रपभ्रंश भाषा के द्वितीय कवि हुये । वे सूतः बन या (दिल्ली) के मास पास के निवासी काश्ययोत्री दादा मोर उपासक थे । पर बाद में जेवी हो गये। इन्हें भी डाट राजा कृष्ण तृतीय (सं. 996-1025) के मंत्री भरत और उसके पुत्र वश का द्याय मिला था । प्रकृति से स्वाभिमानी होने के कारण वे प्रापतियों के शिकार रहे।
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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