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________________ 21 वीरवरविजय, चन्दसि महत्तर, गर्मर्षि, जिनबल्लभंगरिण, देवेन्द्रसूरि, हर्षकुलगरिए . शादि भावाय ने, सिद्धान्त के क्षेत्र में हरिभद्रसूरि, कुमार कार्तिकेय, शांतिसूरि, राजशेखरसूरि, जयबल्लभ, गुणरत्नविजय प्रादि भाचायों ने, भाचार व भक्ति के क्षेत्र मैं हरिभद्रसूरि वीरभद्र, देवेन्द्रसूरि वसुनदि, जिनप्रभसूरि, धर्मघोषसूरि श्रादि प्राचार्यो ने, पौराणिक और कथा के क्षेत्र में शीलाचार्य, भद्रेश्वरसूरि, सोमप्रभाचार्य, श्रीचन्दसूरि, लक्ष्मणगरिण, संघदासगरिण, धर्मदासगरिण, जयसिंहसूरि, देवभद्रसूरि, देवेन्द्रगरिण, रत्नशेखरसूरि, उद्योतनसूरि, गुणपालमुनि, देवेन्द्रसूरि प्रादि श्राचार्यों ने प्राकृत भाषा में Warfधक ग्रन्थ लिखे । लाक्षणिक, गणित, ज्योतिष, शिल्प श्रादि क्षेत्रों में भी प्राकृत भाषा को अपनाया गया जिसने हिन्दी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया । प्राकृत के ही उत्तरवर्ती विकसित रूप अपभ्रंश ने तो हिन्दी साहित्य को सर्वाधिक प्रभावित किया है । स्वयंभू (7-8वीं शती) का पउमचरिउ और रिट्ठमिचरिउ, धवल (10-11वीं शती) और यशःकीर्ति ( 15वीं शती) के हरिवंशपुराण, पुष्पदत (10वीं शती) के तिसद्विपुरिसगुणालंकार ( महापुराण), जसहरचरिउ र गायकुमारचरिउ, धनपाल धक्कड़ (10वीं शती) का भविसयत्तकहा, कनकामर, ( 10वीं शती) का करकण्डु चरिउ, घाहिल ( 10वी शती) का पउम सिरिचरिउ, हरिदेव का मयणपराजय, धब्दुल रहमान का सदेसरासक, रामसिंह का पाहुड़दोहा, देवसेन का सावयवम्मदोहा आदि सैकड़ों ग्रन्थ अपभ्रंश में लिखे गये हैं जिन्होंने हिन्दी के प्रादिकाल और मध्यकाल को प्रभावित किया है। उनकी सहज-सरल भाषा स्वाभाविक वर्णन और सांस्कृतिक धरातल पर व्याख्यायित दार्शनिक सिद्धान्तों ने हिन्दी जैन साहित्य की समग्र कृतियों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है । भाषिक परिवर्तन भी इन ग्रन्थों में सहजता पूर्वक देखा जा सकता है । हिन्दी के विकास की यह प्राथ कड़ी है । इसलिए अपभ्रंश की कतिपय मुख्य विशेषताओं की प्रोर ध्यान देना मावश्यक है । अपभ्रंश जिसे प्राभीरोक्ति, भ्रष्ट और देशी भाषा कहा गया है, भाषा होने के कारण उसके बोली रूपों में वैविष्य होना स्वाभाविक था । प्राकृत सर्वस्वकार मार्कण्डेय ने उसके तीन प्रमुख रूपों का उल्लेख किया है-नागर, ब्राचर तथा उपनागर | डॉ. याकोबी ने उसे उसरी, पश्चिमी, पूर्वी तथा दक्षिणी के रूपों में विभाजित किया है । डॉ. तगारे ने इस विभाजन को तीन भेदों में ही समाहितकर निम्न प्रकार से वर्णन किया है 1. पूर्वी अपभ्रंश-सरह तथा कण्ह के दोहाकोश और पर्यापदों की भाषा । इसे arrat ra' भी कहा जाता है, प. बंगला, उड़िया, भोजपुरी, ffeet भावि भाषायें इसी से निकली हैं।
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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