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________________ द्वितीय परिवर्त प्रादिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ - मध्यकाल संस्कृत और प्राकृत की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद बाण और श्रीहर्ष तक कान्यकुब्ज संस्कृत का प्रधान केन्द्र रहा । इसी तरह मान्यखेट, माहिष्मती, पट्टण, धारा, काशी, लक्ष्मणवती आदि नगर भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। इस काल में संस्कृत साहित्य पाण्डित्य प्रदर्शन तथा शास्त्रीय वाद-विवाद के पजड़े में पड़ गया। वहां भावपक्ष की अपेक्षा कला पक्ष पर अधिक जोर दिया गया । इसे हासोन्मुख काल की संज्ञा दी जाती है । उत्तरकाल में उसका कोई विकास नहीं हो सका। इस युग में जिनभद्र, हरिभद्र, शीलांक, अभयदेव, मलयगिरि, हेमचन्द्र आदि का पूर्ण साहित्य, अमृतचन्द, जयसेन, मल्लिषेण, मेघनन्दन, सिद्धसेनसूरि, माघनंदि, जयशेखर, पाशाधर, रत्नमन्दिरगणी आदि का सिद्धान्त साहित्य, हरिभद्र, अंकलंक, विद्यान दि, मारिणक्यन दि, प्रभाचन्द, हेमचन्द, मल्लिषेण, यशोविजय आदि का न्याय साहित्य, अमितगति, सोमदेव, माघन दि, माशापर, वीरन दि, सोमप्रभमूरि, देवेन्द्रसूरि, राजमल्ल प्रादि का प्राचार साहित्य, प्रकलंक, वप्पिभट्टि, धनंजय, विद्यान दि, वादिराज, मानतुग, हेमचन्द, माशापर, पद्मन दि, दिवाकरमुनि मादि का भक्ति परक साहित्य, रविषेरण, जिनसेन, गुणभद्र, श्रीचन्द्र, दामनन्दि, मल्लिषेण, देवप्रमसूरि, हेमचन्द, पाशापर, जिनहर्षगणि, मेरुतुंगसूरि, विनयचन्दसूरि, गुणविजयगणि आदि का पौराणिक और ऐतिहासिक काव्य साहित्य, हरिषेण, प्रभाचन्द, सिर्षि, रस्नप्रभाचार्य, जिनरत्नसूरि, माणिक्यसूरि प्रादि का कथा साहित्य, संस्कृत भाषा में निबद्ध हुए । इसी तरह ललित, ज्योतिष, कोश, व्याकरण, आयुर्वेद, अलंकारशास्त्र आदि क्षेत्रों में जन कवियों ने संस्कृत भाषा के साहित्य भण्डार को भरपूर समृद्ध किया। इसी युग में प्राकृत भाषा में भागमों पर भाष्य, चूरिण व टीका साहित्य लिखा गया । कर्म साहित्य के क्षेत्र में वीरसेन, जयसेन, नेमिचन्द सिद्धान्त चक्रवर्ती
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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