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________________ 12 1 लगभग हर समाज और धर्म पर पड़ रहा था। नवम् शती में चमत्कार के माध्यम से ही तंत्र सम्प्रदाय का जन्म काश्मीर में हुआ। इसकी दो शाखायें हुई स्पन्द, मौर प्रत्यभिज्ञ । स्पन्द शाखा को "शिव-सूत्र " कहा जाने लगा जिसके सिद्धान्तों का प्रतिपादन वसुगुप्त (850-907) ने किया । तदनुसार शिव सृष्टि के कर्ता हूँ । पर उसके भौतिक कारण नहीं । प्रत्यभिज्ञा की स्थापना में सौमानंद (सं. 907) का विशेष हाथ है। उन्होंने इसे ध्वन्यालोक लोचन में अधिक स्पष्ट किया है। तदनुसार संसारी जीव पृथक् होते हुये भी शिव से प्रपृथक् हैं। कालान्तर में शंनमत ने महायान से लाभ उठाया मोर बुद्ध तथा शिव की एक-सा बना दिया । नेपाल में प्राप्त महायानी बौद्ध मूर्तियों तथा योगी शिव मूर्तियों में अंतर करना कठिन हो जाता है । बाद में तान्त्रिक मोर शैव सिद्धान्तों के साथ शक्ति का संबंध जुड़ गया और शाक्त मत प्रारंभ हो गया । यही शक्ति सृष्टि का कारण बनी । शक्ति श्वेत और श्याम वर्ण के रूप में प्रतिष्ठित हुई । श्वेत रूप में उमा और श्याम रूप में काली, चण्डी, चामुण्डा प्रादि भयकारिणी देवियों की स्थापना हुई। इस शाक्त मत में दक्षिणाचार मौर वामाचार भेद हुए। वामाचार की शक्ति साधना मे पंच मकारों का उपयोग किया जाता था उसमें भोग वासना के माध्यम से सिद्धि प्राप्त की जाती थी । पशुबलि भादि भी दी जाती थी। मध्यकाल में ये दोनों प्रवृत्तियाँ हिंसा तथा विलास के रूप में दिखाई देती हैं। उत्तरकाल मे इसी में से अनेक उप-सम्प्रदाओं का जन्म हुमा जिससे हिन्दी साहित्य प्रभावित नहीं रहा । विदेशी मामरणों के बावजूद हिन्दी सा० की परम्परा अपने पूर्ववर्ती संस्कृत पालि, प्राकत और अपभ्रंश भाषा और साहित्य के प्राधार पर फलती-फूलती रही । तात्कालिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि मे भक्ति साहित्य का निर्माण हुआ । उसकी भक्ति धारा दक्षिण से उत्तर भारत में पहुची। भक्ति की यह धारा सगुण मार्गी थी। निर्गुण भक्ति का प्रचार मुस्लिम शासन काल में अधिक हुथा क्योंकि इस्लाम का उससे किसी प्रकार का विरोध नही था । ये निर्गुण साधक अपने ब्रह्म को अपने ही भीतर देखते थे । समाज और राष्ट्र से उन्हे कोई मतलब न था । निर्गुणियों से पूर्व नाथ और सिद्धों के विधि विधानपरक कर्मकाण्ड से जनता को कोई प्रेरणा नही मिल रही थी । हठयोगी सन्त भी लोक-संग्रह का मार्ग नहीं दिखा सकते थे । अतः ईशोपनिषद् के समुच्चयवाद का पुनर्संघटन रामानुजाचार्य ने किया । बाद मे उत्तरभारत में रामानंद, नाथ और तुलसी आदि ने इसका प्रचार किया। इस समुच्चय में भक्ति, ज्ञान धौर कर्म तीनों का समन्वय था । इस भक्ति आन्दोलन ने जन समाज को युगवाणी, युग पुरुष और युग धर्म दिया । 2. जैन धर्म मध्यकाल तक माते झाते जैन धर्म स्पष्ट रूप से दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परामों में विभक्त हो गया था। दोनों परम्पराधों और उनके प्राचार्यों को अनेक
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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