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________________ 294. बस चरणों के माध्यम से अनुभव की प्रावश्यकता को स्पष्ट किया है। दादू ने भी इसी प्रकार से “सो. हम देख्या नेन भरि, सुन्दर सहज स्वरूप" के रूप में अनुभव किया। स्वानुभूति के संदर्भ में मन एकाग्र किया जाता है और इसके लिए सम नियमों का पालन करना आवश्यक है। योगी ही धर्मध्यान और शुक्लध्यान को प्राप्त कर पाता है। यहीं समभाव और समरसता की अनुभूति होती है । थागतराय ने इस अनुभूति को गूगे का गुड़ माना है । इस सहज साधम में. मजपा जाप, नाम स्मरण को भी महत्व दिया गया है। व्यवहार नय की दृष्टि से जाप करना अनुचित नहीं है, निश्चय नय की दृष्टि से उसे बाह्म किया माचा है। तभी धानतराय ऐसे सुमरन को महत्व देते है जिससे ऐसौ सुमरन करिये रे भाई। पवन धंमै मन कितहु न जाइ ।। परमेसुर सौं साची रहो। लोक रंचगा भय तजि दीजै। यम अरु नियम दोउ विधि धारी। प्रासन प्राणायाम समारो ।। प्रत्याहार धारना की ध्यान समाधि महारस पीज ॥ उसी प्रकार अनहद नाद के विषय में लिखते हैं अनहद सबद सदा सुन रे ।। आप ही जाने और न जाने, कान बिना सुनिये धनु रे ॥ ___ भमर गुज सम होत निरन्तर, ता अंतर गति चितवन रे ।। इसीलिए धानतराय ने सोहं को तीन लोक का सार कहा है । जिन साधकों के श्वासोच्छवास के साथ सदैव ही "सोहं सोहं की ध्वनि होती रहती है और जो सोहं के अर्थ को समझकर, भजपा जाप की साधना करते हैं, श्रेष्ठ है-- 1. दादूदयाल की बानी, भाग-1 परचा को मंग, 97,98,109 2. चानतबिलास, कलकत्ता 3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 119 4. बही, -118 पृ. 119-20
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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