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________________ 293 परिहन्त का है। जैन-साधकों ने पंच परमेष्ठियों को सद्गुरु मानकर उसकी उपासना, भक्ति और स्तुति की है। जैन दर्शन में सद्गुरु को प्राप्त मौर अवि संवादी माना है। द्यानतरराय को गुरु के समान और दूसरा कोई दाता दिखाई नहीं देता। उनके अनुसार गुरु उस अन्धकार को नष्ट कर देता है जिसे सूर्य भी नष्ट नहीं कर पाता । मेघ के समान सभी पर समान भाव से निस्वार्थ होकर वह कृपाजल बरसाता है, नरक तिर्यत्व आदि गतियों से मुक्तकर जीवों को स्वर्गमोक्ष में पहुंचाता है। अतः त्रिभुवन मे दीपक के समान प्रकाश करने वाला गुरु ही है। वह ससार संसार से पार लगाने वाला जहाज है । विशुद्ध-मन से उनके पद-पकज का स्मरण करना चाहिए। गुरु समान दाता नही कोई । प्रादि । सत साहित्य मे भी कबीर, दादू, नानक, सुन्दर दास आदि ने सद्गुरु मौर सत्सग के महत्व को जैन कवियों की ही भाति शब्दो के कुछ हेर-फेर से स्वीकार किया है । द्यानतराय कबीर के समान उन्हे कृतकृत्य मानते हैं। जिन्हें सत्संगति प्राप्त हो गई हे-“कर कर सगत, सगत रे भाई । भेदविज्ञान की प्राप्ति के लिए सद्गुरु मार्गदर्शन करता है। उसकी प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यगान और सम्यक्चारित्र का समन्वित रूप-रत्न त्रय माना गया है। भदविज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहा गया है । अन्तरंग मौर बहिरग सभी प्रकार के परिग्रहा से दूर रहकर परिषह सहते हुए तप करने से परम-पद प्राप्त होता है। साधक कवि द्यानतराय प्रात्मानुभव करने पर कहने लगता है "हम लागे पातमराम सी। उसकी प्रात्मा में समता सुख प्रकट हो जाता है, दुविधाभाव नष्ट हो जाता है और भेद विज्ञान के द्वारा स्व-पर का विवेक जाग्रत हो जाता है इसलिए द्यानतराय कहने लगते है कि मातम अनुभव करना रे भाई ।' कवि यहा प्रात्मानुभूति प्रधान हो जाता है मौर कह उठता है "मोह कब ऐसा दिन प्राय है" जब भेदविज्ञान हो जायेगा। संत साहित्य में भी स्वानुभूति को महत्व दिया गया है कबीर मे "राम रतन पाया रे करम विचारा. नंना नैन अगोचरी, प्राप पिछाने पाप प्राप 1. धानत पद संग्रह, पृ. 10 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 137 3. हिन्दी पद संग्रह, द्यानतराय, पृ० 109-141 4. हिन्दी पद संग्रह, द्यानतराय, पृ. 109-141 5. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 241 6. वही पृ. 318
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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