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________________ नैना नीझर लाइया, रहट बस निस-जाम । पपीहा ज्यूपिव पिव करौं, कबस मिलहुगे राम |2411 पंखडि प्रेम कसाइयां, लोग जाणे दुःखड़ियां । साई मपणे कारण, रोई रोई रत्तड़ियां ॥25॥ हंसि हंसि कन्त न पाइये, जिनि पाया तिन रोइ। जो हंसि हंसि ही हरि मिल, तो न दुहागिनि कोइ ॥1 प्रियतम रूप परमात्मा का प्रेम वैसा ही होता है जैसा कि मीन को नीर से, शिशु को क्षीर से, पीड़ित को औषधि से, चातक को स्वाति से, चकोर को चन्द से, सर्प को चन्दन से, निर्धन को धन से, और कामिनी को कन्त से होता है। प्रेम से व्यथित होकर प्रेमी अन्दर और बाहर सर्वत्र प्रिय का ही दर्शन करता है कबीर रेख सिन्दूर की, काजल दिया न जाइ । नैनू रमइया रमि रहया, दूजा कहां समाई ॥ नंना अन्तरि भाव तू ज्यू हों नेन झपेउ । नां ही देखों और कू, ना तुझ देखन देउ ।' प्रियतम के ध्यान से कबीर की द्विविधा का भेद खुल जाता है और मन मैल घुल जाता है--दुविधा के भेद खोल बहुरिया मनकै घोवाइ ।' उनकी चूनरी को भी साहब ने रंग दिया। उसमें पहले स्याही का रंग लगा था। उसे छुटाकर मजीठा का रंग लगा दिया जो धोने से छूटता नहीं बल्कि स्वच्छ-सा दिखता है। उस चूनरी को पहनकर कबीर की प्रिया समरस हो जाती है 1. कबीर ग्रंथावली, पृ. 9; कभीर-डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 193. 2. नीर बिनु मीन दुखी क्षीर बिनु शिशु जैसे । पीर जाके औषधि बिनु कंसे रह्यो जात हैं। चातक ज्यों स्वाति बूंद चन्द को चकोर जैसे चन्दन की चाह करि सर्प अकुलात है ।। निधन ज्यों धन चाहै कामिनी को कन्त चाहै ऐसी जाके चाह ताको कछु न सुहात है। प्रेम को प्रभाव ऐसौ प्रेम तहां नेम कैसी सुन्दर कहत यह प्रेम ही की बात है ।। सन्त सुधासागर, पृ. 59 कबीर मन्थावली, 4, 2; मध्यकालीन हिन्दी सन्त-विचार और साधना, पृ. 217.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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