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________________ चांद सुरज जामैं प्रांचल लागे, जगमग जोति उजारी । बिनु ताने यह बनी चुनरिया, दास कबीर बलिहारी ॥ कबीर के प्रियतम की छवि विश्व व्यापिनी है। स्वयं कबीर भी उसमें तन्मय होकर 'लाल' हो जाते हैं । उसके विरह से विरहिणी क्रौंच पक्षी के समान रात भर रोती रहती है वियोग से सन्तप्त होकर वह पथिकों से पूछती है --प्रियतम का एक शब्द भी सुनने कहां मिलेगा ? उसकी व्यथा हिचकारियों के माध्यम से फूट पड़ती है 1. 2. 3. पाइन सकों तुझ पे सकू न तुझ बुलाइ । जियरा यों ही लेगे, विरह तपाइ तपाइ || प्रेषड़िया भाई पड़ी, पन्थ निहारि निहारि । जीभड़िया छाला पड्या, राम पुकारि पुकारि ॥ इन तन के दीवा कसं, बाती मेल्यू जीव । लोही सींचो तेल ज्यू, कब मुख देखौं पीव ॥ 8 निम्न पंक्तियों में प्रियतम के विरह का arat विधुरी रेगिकी, भाइ मिली परमाति । जे जन विछुरे राम से, ते दिन मिले न राति || बासरि सुख न रेंग सुख, नां सुख उपुनं मांहि । कबीर विछुट्या रामसू, ना सुख धूप न छांह || विरहिन कभी पंथसिरि, पंथी बुदे धाइ । एक सबद कहि पीवका, कबरें मिलेंगे भाई || आत्मसमर्पण के लिए कवियों ने श्राध्यात्मिक विवाह का सृजन किया है। पत्नी की तन्मयता पति में बिना विवाह के पूरी नहीं हो पाती। पीहर में रहते हुए भी उसका मन पति में लगा रहता है। पति से भेंट न होने पर भी पत्नी को उसमें सुख का अनुभव होता है । करुण क्रन्दन में ही उसके प्रिय का वास है । प्रिय का मिलन हंसी मार्ग से नहीं मिलता। उसके लिए तो प्रभु प्रवाह ही एक सरल मार्ग हैखड़ियां झांई पड़ी, पन्थ निहारि निहारि । जीभडियो छाला पड्या राम पुकारि पुकारि ॥22॥ 4. और भी संवेदन दृष्टव्य है 269 कबीर -डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 187. लाली मेरे लाल की जित देखू तितलाल । लाली देखन में गई मैं भी हो गई लाल || कबीर वचनावली - प्रयोध्यासिंह, पृ. 6. मध्यकालीन हिन्दी सन्त विचार और साधना, पू. 216. कबीर -डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 191.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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