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________________ भी इस शब्द का प्रयोग किया है। निरंजन पात्मा की यह स्थति है वहाँ भाषा मथवा मविद्या का पूर्ण विनाश हो जाता है और मारमा की विदुरवस्था प्राप्त हो जाती है । इस अवस्था को सभी सम्प्रदायों ने लगभग इसी रूप में स्वीकार किया है । प्रतएव यह कथन सत्य नहीं लगता कि निरंजन नामक कोई पृषक सम्म दाय था। जिसका लगभग 12 वीं शताब्दी में उदय हुअा होगा। डॉ. मिलायत से निरंजन सम्प्रदाय का संस्थापक कबीरपंथी हरीदास को बताया। यह भ्रम माग है। निरंजन नाम का न तो कोई सम्प्रदाय ही था और न उसका संस्थापक हरीदास अथवा निरंजन नामक कोई सहजिया बौद्ध सिद्ध ही था। इस शब्द का प्रयोग तों मात्मा की उस परमोच्च अवस्था के लिए भागमकाल से होता रहा है जिसमें मापा मथवा प्रविद्या का पूर्ण विनाश हो जाता है। योगीन्दु ने इस शब्द का प्रयोग बहुत किया है। उनका समय लगभग 8 वीं शती है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि निरन्जन वह है जिसमें रागादिक विकारों में से एक भी दोष न हों जासुण वण्णु ण गंधु रसु ज सुरण सदु ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु रणवि गाउ णिरंजणु तासु ॥ जासु रण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय स माणु । जासु ण ठाणु रण माणु जिय सो जि निरंजणु जाणु॥ भत्थि रण पुण्णु ण पाउ जसु अस्थि ण हरिसु बिसाउ । पत्थि ण एक्कु वि दोसु जसु सो जि रिपरजणु माउ ।' 1. कबीर-डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी प्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, __ पंचम संस्करण, पृ. 52-53. 2. हिन्दी की निर्गुण काव्यधारा और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि, पृ. 354. 3. हिन्दी की निर्गुण काव्यधारा और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि, पृ. 35.5. 4. रंजनं रागायु:-रंजनं तस्मान्निर्गतपस्थानांगसूत्र, अभियान राजेन्द्र कोश, चतुर्थ भाग, पृ. 2108, कल्प सुबोधिका में भी लिखा है-रजनं रामायुपरजन तेन शून्यत्वात निरञ्जनम् । 5. परमात्म प्रकाश, 1-17, 123, 6. मध्यकालीन धर्मसाधना-डॉ. हमारीत्रसाद शिवी, प्र. संस्करण, 1952 पृ. 44. 7. परमात्म प्रकाश, पृ. 27-28.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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