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________________ ₹ AN 242 arrer की है । अनेक ऐसे पद हैं जिनमें परब्रह्म कृष्ण के अन्तयामी विराट स्वरूप, तथा निर्गुण स्वरूप का वर्णन है । ' बनारसीदास ने भी परमात्मा के इन्हीं सगुण और निर्गुण स्वरूप की स्तुति की है- 'निर्गुण रूप निरंजनदेवा, सगुण स्वरूप करें विधि सेवा । " एक अन्यत्र स्थान पर कवि ने चैतन्य पदार्थ को एक रूप ही कहा है पर दर्शन गुण को निराकार चेतना और ज्ञानगुण को साकार चेतना माना है अंजन का अर्थ माया है और माया से विमुक्त ग्रात्मा को निरंजन कहा गया है । बनारसीदास ने उपर्युक्त पद में निरंजन शब्द का प्रयोग किया है। कबीर ने भी निरंजन को निर्गुण और निराकार माना है - निराकार चेतना कहावे दरसन गुन साकार चेतना सुद्ध ज्ञानगुनसार है । चेतना मत दोऊ' चेतन दख मांहि समान विशेष सत्ता ही को विसतार है ॥ मो पंदे तू निरंजन तू निरंजन राया। तेरे रूप नांही रेख नाहीं, मुद्रा नांहीं माया ॥ * सुन्दरदास ने भी इसे स्वीकार किया है-'अंजन यह जन राइ | सुन्दर उपजत देखिए, बहुरयो जाइ विलाइ || में जो व्यक्ति समस्त प्राशानों को दूर कर ध्यान द्वारा अजपा जाप को अपने प्रन्तःकरण में संचित करता है वह निरंजन पद को प्राप्त करता है 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. मासा मारि श्रासन घरि घट में, अजपा जाप जगावं । मानन्दघन चेतनमय मूरति नाथ निरंजन पावं ॥ निरंजन शब्द के इन प्रयोगों से यह स्पष्ट है कि जैन श्रौर जैनेतर कवियों ने इसे परमात्मा के अर्थ में प्रयुक्त किया है। सिद्ध सरहपाद' और गोरखनाथ ने 8. मामा करी, श्रापु निरंप्रानन्दघन की दृष्टि सूर और उनका साहित्य, पृ. 211. बनारसीविलास, शिवपच्चीसी, 7 पृ. 150. नाटक समयसार, मोक्षद्वार, 10, पृ. 219 कबीर ग्रंथावली, 219, पृ. 162. सन्तसुधासार, पृ.648. मानन्दघन बहोंतरी, पृ. 359. सुया रिंगरंजन परम हउ, सुइणोमा सहाय । 1 भावहु चित्त सहायता, जउ रासिज्जइ जाय || दोहाकोश, 139, पृ. 30. ' उदय न ग्रस्त राति न दिन, सरने सचराचर भाव न भिन्न । सोई निरंजन डाल न मूल, सर्वव्यापिक सुषम न प्रस्थूल || हिन्दी काव्यधारा, पृ. 158.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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