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________________ कबीर के समान ही तुलसी ने भी संसार को पार करने के लिए गुरु की ति अनिवार्य मानी है । साक्षात् ब्रह्मा और विष्णु के समान व्यक्तित्व भी, गुरु के ना संसार से मुक्त नहीं हो सकता। सद्गुरु ही एक ऐसा दृढ़ कर्णधार है जो के दुर्लभ कामों को भी सुलभ कर देता है करनधार सद्गुरु दृढ़ नावा, दुर्लभ साज सुलभ करि पाया । मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी गुरु को इससे कम महत्व नहीं दिया। होंने तो गुरु को वही स्थान दिया है जो प्रर्हन्त को दिया है। पंच परमेष्ठियों में 1 को देष माना पोर शेष चारों को गुरु रूप स्वीकारा है । ये सभी "दुरित हरन दारिद दोन" के कारण है । कबीरादि के समान कुशल लाभ ने शाश्वत सुख उपलब्धि को गुरु का प्रसाद कहा है-"श्री गुरु पाय प्रसाद सदा सुख सपजइ * रूपचन्द ने भी यही माना । बनारसीदास ने सद्गुरु के उपदेश को मेघ की मा दी है जो सब जीवों का हितकारी है। मिथ्यात्वी और प्रशानी उसे ग्रहण करते पर सम्यग्दृष्टि जीव उसका प्राश्रय लेकर भव से पार हो जाते है। अन्यत्र स्थल पर बनारसीदास ने उसे "ससार सागर तरन तारन गुरु जहाज खिये" कहा है । मीरा ने 'सगुरा' और 'निगुरा' के महत्व को दृष्टि में रखते हुए कहा है कि रा को अमृत की प्राप्ति होती है और निगुरा को सहज जल भी पिपासा की त के लिए उपलब्ध नही होता। सद्गुरु के मिलन से ही परमात्मा की प्राप्ति गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई जो विरंचि संकर सम होई । बिन गुरु होहि कि ज्ञान ज्ञान कि होइ विराग विनु । रामचरितमानस उत्तरकाण्ड, 93 वही, उत्तरकाण्ड, 4314 बनारसीविलास, पचपद विधान, 1-10 पृ. 162-163. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 117. ज्यौं वर५ वरषा समे, मेघ अखंडित धार । त्यो सद्गुरु वानी खिर, जगत जीव हितकार ।। नाटक समयसार, 6, पृ. 338. वही, साध्य साधक द्वार, 15-16 पृ. 242-3. बनारसी विलास, भाषासूक्त म.क्तावली, 14, पृ. 24
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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