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________________ 218 । सूर ने बल्लभाचार्य का अनुकरण करते हुए माया को ईश्वर की ही शक्ति का प्रतीक माना है । वह सत्य और भ्रम दोनों रूप है । शंकराचार्य की दृष्टि में विद्या के दूर होने पर जीव प्रौर जगत् का भी नाश हो जाता है पर बल्लभाचार्य उसे नही मानते । वे केवल संसार का नाश मानते हैं माया तो उनकी दृष्टि में परमात्मा की ही शक्ति है 1 जिसके चक्कर से शंकर, ब्रह्म प्रादि जैसे महामानव भी नहीं बच सके 12 सूर ने माया को मुजंगिनी, नटिनी, मोहनी भी कहा । काम, कोष, तृष्णा मादि विकार भी मायाजन्य ही हैं। माया ही अविद्या अथवा मिथ्यात्व है जिसके कारण भौतिक ससार सत्यवत् प्रतीत होता है । यही संसार भ्रमण का कारण है। मीरा पुनर्जन्म में विश्वास करती थीं । पुनर्जन्म का कारण श्रविद्या, मोह अथवा कर्म है । संचित (प्रतीत), संचीयमान (भावी) और प्रारब्ध (वर्तमान) कर्मों में संचित कर्म ही पुनर्जन्म के कारण हैं मीरा के विविध रूप उसके प्रतीक हैं । कर्म की शक्ति का वर्णन मीरा ने निम्नलिखित पद्य मे स्पष्ट किया है करम गति द्वारां ना री टरां । सतबादी हरचन्द्रा राजां होम घर नीरां भरां ॥ पांच पांडुरी रानी दुपदा हाड़ हिमालो गरां । जग्य किया बलि लेन इन्द्रासन जायां पताल परां । मीरा रे प्रभु गिरधर नागर बिखरू भ्रमरित करां ॥ तुलसी किस दर्शन के अनुयायी थे यह श्राज भी है । " मुझे ऐसा लगता है कि वे बल्लभाचार्य के विशेष भाचार्य के समान ही उन्होंने भी माया को राम की 1. गोपाल तुम्हारी माया महाप्रबल निहि सब पद, 44. 2. माधौजू नैकु हटको गाइ । 3. विवाद का विषय बना हुआ अनुयायी रहे होगे । बल्लशक्ति माना है - 'मन माया 4. मीराबाई, पृ. 327-28. 5. तुलसी, सं. उदयभानु सिंह, पृ. 178-9. जग बस कीन्हो, सूरसागर भ्रमत निसि वासर प्रपथ-पथ अगह गहि गहि जाइ । षुधिन प्रति न प्रधाति कबहू, निगम दुमदल खाइ । अष्ट दस-घट नीर पंचवति तृषा तऊ न बुझाइ । सूरसागर, पद 56. सूरसागर, 42-43, तुलनार्थ दृष्टव्य, मलूकदास, भाग 2, पृ. 9, पलटू, संतवारणी संग्रह, भाग 2, पृ. 238.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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