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________________ 217 है जिसके कारण जीव संसार भ्रमण करता रहता है। बौद्धों ने भी इसे इन्हीं शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया है। उन्होंने इसके प्रनेक रूप बताये हैं- स्वप्नवाद, aftycare aौर शुन्यवाद । इन्हीं को ऋषियों ने प्रध्यास, अनिर्वचनीय, स्थातिवाद आदि के सहारे स्पष्ट किया है । प्रद्धत वेदान्त के अनुसार मात्मा माया द्वारा ही सृष्टि का निमित्तोपादान कारण है और उसके दूर होने से एक प्रात्मा अथवा ब्रह्म ही शेष रह जाता है । इसके विपरीत तांत्रिकों का मायाबाद है । जहाँ माया मिथ्या रूप नहीं बल्कि सद्रूप है । मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने मिथ्यात्व, मोह और कर्म को अपने काव्य में प्रस्तुत किया है जिसे हम पंचम परिवर्त मे देख चुके है। सगुण-निर्गुण हिन्दी के अन्य कवियों ने भी माया के इसी रूप का वर्णन किया है जायसी ने ब्रह्मविलास में माया और शैतान ये दो तत्व बाधक माने हैं। अलाउद्दीन और राघव को चेतन के संतान के रूप में चित्रित किया है । रत्नसेन जैसा सिद्ध साधक उसकी प्रचिन्त्य शक्ति के सामने घुटने टेक देता है । माया को कवि ने नारी का प्रतिरूप माना है । अहंकार और जड़ता को भी व्यजित करती है। अलाउद्दीन को महंकार का अवतार बताया गया है । 'नागमती यह दुनियां धंधा' कहकर नागमती को भी माया का प्रतीक माना है । माया, छल, कपट, स्त्री प्रादि शब्द समानार्थक हैं। जायसी ने इसीलिए नारी (नागमती) के स्वभाव को प्रस्तुत कर मिथ्यात्व, माया और मोह को अभिव्यंजित किया है । जो तिरियां के काज न जाना । परे घोख पीछे पछताना || नागमति नागिनि बुषि ताऊ । सुधा मयूर होइ नहि काऊ || 1. मित वेदतो जीवो, विवरीयदंसरगो होई । गय धम्मं रोचेदि हु, महुरं पि रसं जहा जरिदो, पंचसंग्रह, 1.6 : तु. उत्तराध्ययन, 7. 24. 2. 3. ब्रह्मसूत्र भाष्य, 2. 1. 9, 1.1. 21, 2.1. 28. ब्रह्म सत्यम् जगत् इदमनृतं मायया भासमानं । जीवो ब्रह्म स्वरूपी ग्रहमिति ममचेत् अस्ति देहेभिमान । श्रुत्वा ब्रह्ममहमनुयभवमुदिते नष्ट कर्माभिमानात् । माया संसार मुक्ते इह भवति सदा सच्चिदानन्द रूप: । भक्तिकाव्य में रहस्यवाद, पू. 63. राघवदूत सोइ सैतानू । माया पलाउद्दीन सुलतानु || जायसी ग्रन्थावली, g. 301. वही, पृ. 224-226. 5. 6. वही, पु. 205.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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