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________________ अष्टम परिवर्त रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन जैसा हम पिछले पृष्ठों में देख चुके हैं, रहस्यभावना प्राध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में एक ऐसा असीमित तत्त्व है जिसमें संसार से लेकर संसार से विनिमुक्त होने की स्थिति तक साधक अनुचिन्तन और अनुप्रेक्षण करता रहता है । प्रस्तुत प्रध्याय में हम रहस्यभावना के प्रमुख बाधक तत्वों से लेकर साधक तत्त्वों और रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों का सक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं । इस सन्दर्भ में हमने मध्यकालीन हिन्दी साहित्य के जायसी कबीर, सूर, तुलसी, मीरा प्रादि जैसे रहस्यवादी नेतर कवियों के विचार देखे हैं और उनके तथा जैन कवियों के विचारों में साम्य-वैषम्य खोजने का भी प्रयत्न किया है। 1. वाधक तत्त्व 1. संसार-चिन्तन : संसार की क्षणभंगुरता और अनित्यशीलता पर सभी प्राध्यात्मिक सन्तो ने चिन्तन किया है । संसार का अर्थ है संसरण अर्थात् जन्म-मरण । यह जन्म-मरण शुभाशुभ कर्मों के कारण होता है-'एवं भवसंसारइ सुहासु होहिं कम्मेहि ।। उपनिषद्, त्रिपिटक, पागम मादि ग्रन्थों में एतत् सम्बन्धी अनेक उदाहरण मिलते हैं । प्राचार्यों ने शरीर और सांसारिक विषयों को मोह का कारण माना है । उन्होंने यह भी अनुभव किया है कि जिस प्रकार जीव पौर शरीर का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है उसी प्रकार सभी प्रात्मीय जन भी बिछुड़ जाते हैं । माता-पिता, पत्नी, पुत्र, भाई मादि सभी लोग मृत व्यक्ति को जलाकर रोते-चिल्लाते वापिस चले जाते हैं परन्तु 1. उत्तराध्ययन, पृ. 10, 15.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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