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________________ 209 इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी के जैन साधकों द्वारा लिखित विवाह, फागु और होलियां प्रादि प्राध्यात्मरस से सिक्त ऐसी दार्शनिक कृतियाँ हैं जिनमें एक घोर उपमा, उत्पेक्षा, रूपक, प्रतीक प्रादि के माध्यम से जंन दार्शनिक सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया गया है वहीं दूसरी भोर तात्कालीन परम्परामों का भी सुन्दर चित्रण हुमा है । दोनों के समन्वित रूप से साहित्य की छटा कुछ अनुपम-सी प्रतीत होती है । साधक की रहस्यभावना की अभिव्यक्ति का इसे एक सुन्दर माध्यम कहा जा सकता है। विशुद्धावस्था की प्राप्ति, चिदानन्द चैतन्यरस का पान, परम सुख का अनुभव तथा रहस्य की उपलकि का भी परिपूर्ण ज्ञान इन विधायों से झलकता है । जैन साधकों की रहस्य-साधना में भक्ति, योग, सहज भावना और प्रेमभावना का समन्वय हुआ है । इन सभी मार्गों का अवलम्बन लेकर साधक अपने परम लक्ष्य पर पहुंचा है प्रौर उसने परम सत्य के दर्शन किये हैं । उसके और परमात्मा के बीच बनी खाई पट गई है। दोनों मिलकर वैसे ही एकाकार और समरस हो गये जैसे जल और तरंग | यह एकाकारता भक्त साधक के सहज स्वरूप का परिणाम है जिससे उसका भावभीना हृदय सुख-सागर में लहराता रहता है घौर अनिर्वचनीय मानंद का उपभोग करता रहता है।
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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