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________________ तीन लोक में सार, घार सिव खेत निवासी । अष्ट कर्म सौं रहित, सहित गुण प्रष्ट विलांसी ॥ जंसो तेसो प्राप, थाप निहचं तजि सोहं । अजपा जाप संभार, सार सुख सोहं सोहं ॥ आनंदघन का भी यही मत है कि जो साधक ग्राशाओंों को मारकर अपने अंतः कारण में अजपा जाप को जगाते हैं वे चेतन मूर्ति निरंजन का साक्षात्कार करते हैं ।" इसीलिए संत मानंदघन भी सोहं को संसार का सार मानते हैं चेतन ऐसा ज्ञान बिचारो। सोहं सोहं सोहं सोहं सोहं अणु नबी या सारो ॥। 3 इस प्रजपा की अनहद ध्वनि उत्पन्न होने पर आनंद के मेघ की झड़ी लग जाती है और जीवात्मा सौभाग्यवती नारी के सदृश्य भावविभोर हो उठती हैं 2. "उपजी घुनि श्रजपा की अनहद, जीत नगारेवारी । झड़ी सदा श्रानंदधन बरखत, बन मोर एकनतारी ॥ उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि सहज योग साधनाजन्य रहस्यभावना से साधक प्राध्यात्मिक क्षेत्र को अधिकाधिक विशुद्ध करता है तथा ब्रह्म (परमात्मा ) और आत्मा के सम्मिलन अथवा एकात्मकता की अनुभूति तथा तज्जन्य प्रनिर्वचनीय परमसुख का अनुभव करता है। इन्हीं साधनात्मक अभिव्यक्तियों के चित्ररण में वह जब कभी अपनी साधना के सिद्धान्तों प्रथवा पारिभाषिक शब्दों का भी प्रयोग करता है। इस शैली को डॉ० त्रिगुणायत ने शब्द मूलक रहस्यवाद और अध्यात्म मूलक रहस्यवाद कहा है ।" इस तरह मध्यकालीन जैन साधकों की रहस्य साघना अध्यात्ममूलक साधनात्मक रहस्यभावना की सृष्टि करती है । 1. धर्मविलास, पृ. 65, सोहं निज जपं, पूजा श्रागमसार । 3. 191 uter] मारि भासन घरि घट में, अजपा जाप जगावं । ग्रानंदधन चेतनमयमूरति नाहि निरंजन पावे ॥ ॥ (भानंदधन बहोत्तरी, पृ. 359. ग्रानंदघन बहोत्तरी, पृ. 395; अपभ्रंश और हिन्दी जैन रहस्यवाद, T. 255. 4. वही, पृ. 365. 5. सत्संग में बैठना, यही करें व्यौहार || (प्रध्यात्म पंचासिका दोहा, 49. कबीर की विचारधारा --- डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत, पृ. 226-228.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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