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________________ 190 पीताम्बर दत्त बडपवाल ने सुमिरन के जो तीन भेद माने हैं। उन्हें जैन साधकों ने अपनी साधना में अपनाया है । उन्होंने बाह्यसाधन का खंडनकर अन्तः साधना पर वल दिया है । व्यवहार नय की दृष्टि से जाप करना अनुचित नहीं है पर निश्चय नय की दृष्टि से उसे बाह्य क्रिया माना है। तभी तो द्यानतराय जी ऐसें सुमिरन को महत्व देते हैं जिसमें - प्रत्याहार चारना कीजै । ध्यान समाधि महारस बीजं ॥12 मनहृद को ध्यान की सर्वोच्च प्रवस्था कहा जा सकता है जहां साधक घन्तरतम में प्रवेश कर राग-द्वेषादिक विकारी भावों से शून्य हो जाता है। वहां शब्द प्रतीत हो जाते हैं और अन्त में आत्मा का ही भाव घोष रह जाता है । कान भी अपना कार्य करना बंद कर देता है । केवल भ्रमरगुज्जन-सा शब्द कानों में गूंजता रहता है । सो सुमरन करिये रे भाई । पवन में मन कितहु न जाई ॥ परमेसुर सौं साचों रहिजे । लोक रंजना भय तजि दीजै ॥ यम अरु नियम दोऊविधि घारौ । श्रासन प्राणायाम समारो | 1. 2. 3. अनहद सबद सदा सुन रे ॥ प्राप ही जाने प्रौर न जानें, कान बिना सुनिये घुन रे ॥ इसीलिए द्यानतराय जी ने सोहं को तीन लोक का सार कहा है । जिन साधकों के श्वासोच्छवास के साथ सदैव ही सोहं सोहं की ध्वनि होती रहती है और जो सोहं के अर्थ को समझकर, प्रजपा की साधना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं भमर गुंज सम होत निरन्तर, ता प्रतर गति चितवन रे || सोहं सोहं होत नित, सांस उसास मकार । ताको अरथ विचारिर्य, तीन लोक में सार ॥ 1. जाप-जो कि बाह्य क्रिया होती है। 2. अजपाजाप-जिसके अनुसार साधक बाहरी जीवन का परित्याग कर आभ्यांतरित जीवन में प्रवेश करता है, 3. अनहद जिसके द्वारा साधक अपनी श्रात्मा के गूढ़तम भ्रंश में प्रवेश करता है, जहां पर अपने आप की पहिचान के सहारे वह सभी स्थितियों को पार कर प्रांत में कारणातीत हो जाता है । हिन्दी पद संग्रह, पृ. 119. वही, पृ. 118, श्राश्रो सहजवसन्त खेलें सब होरी होरा ॥ अनहद शबद होत घनघोरा । (वही, पृ. 119-20 )
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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