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________________ 113 छयालीस गुरण उत्पन्न हो जाते हैं। भैया भगवतीदास के लिए प्रभु का नामस्मरण कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणि और अमृत-सा लगता है जो समस्त दुःखों को नष्ट करने वाला और सुख प्राप्ति का कारण है। बानतराय प्रमु के नामस्मरण के लिए मन को सचेत करते हैं जो अघजाल को नष्ट करने में कारण होता है रे मन भज-भज दीन दयाल ॥ जाके नाम लेत इक खिन में, कट कोटि प्रध जाल || पार ब्रह्म परमेश्वर स्वामी, देखत होत निहास । सुमरण करत परम सुख पावत, सेवत भाजे काल ॥1॥ इन्द्र फणिन्द्र चक्रधर गावै, जाको नाम रसाल । जाके नाम ज्ञान प्रकास, नास मिथ्याजाल ॥3॥ जाके नाम समान नहीं कछु, ऊरष मध्यपताल । सोई नाम जपो नित धानत, छांडि विष विकराल ॥4॥ प्रभु का यह नामस्मरण (चितवन) भक्त तब तक करता रहता है जब तक वह तन्मय नहीं हो जाता। 'जैनाचार्यों ने स्मरण और ध्यान को पर्यायवाची कहा है । स्मरण पहले तो रुक-रुककर चलता है, फिर शनैः शनैः उसमें एकान्तता पाती जाती है, और वह ध्यान का रूप धारण कर लेता है । स्मरण में जितनी अधिक तल्ली. नता बढ़ती जायेगी वह उतना ही तद्रूप होता जायेगा । इससे सांसारिक विभूतियों की प्राप्ति होती अवश्य है किन्तु हिन्दी के जैन कवियों ने प्राध्यात्मिक सुख के लिए ही बल दिया है । प्रभु के स्मरण पर तो लगभग सभी कवियों ने जोर दिया है किन्तु ध्यानवाची स्मरण जैन कवियों की अपनी विशेषता है । इस प्रकार के ध्यान से भक्त कवि का दुविधाभाव समाप्त हो जाता है और उसे हरिहर ब्रह्म पुरन्दर की सारी निधियां भी तुच्छ लगने लगती हैं। वह समता रस का पान करने लगता है। समकित दान मे उसकी सारी दीनता चली जाती है और प्रभु के गुणानुभव के रस के मागे भौर किसी भी वस्तु का ध्यान नहीं रहता हम मगन भये प्रमु ध्यान में विसर गई दुविधा तन मन की, अचिरा सुत गुन गान में ।। हरि-हर-ब्रह्म-पुरन्दर की रिषि, पावत नहिं कोउ मान में । 1. प्रद्युम्न परिव, 1, भामेर शास्त्र भंडार जयपुर में सुरक्षित हस्तलिखित प्रति. 2. ब्रह्मविलास, कुपंथ पचीसिका, 3, पृ. 180. 3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 125-26. 4. हिन्दी जैन भक्ति काव्य मोर कवि, पृ. 16-17.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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