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________________ 172 स्वरूप निर्विकार, निश्चल, निकल और ज्ञानगम्य है जिसने उसे जान लिया उसे संसार में मौर कुछ करने की प्रावश्यकता नहीं रह जाती।। कविवर द्यानतराय ने पार्श्वनाथ स्तोत्र में तीर्थकर पार्श्वनाथ की महिमा का अनेक प्रकार से गुणगान किया है दुखी दुःखहर्ता सुखी सुक्खकर्ता । सदा सेवकों को महानन्द भर्ता ॥ हरे यक्ष राक्षस भूतं पिशाचं । विषं डांकिनी विघ्न के भय प्रवाचं ॥3॥ दरिद्रीन को द्रव्य के दान दीने । अपुत्रीन कों तु भले पुत्र कीने ॥ महासंकटो से निकार विधाता। सबे संपदा सर्व को देहि दाता ॥402 पं. रूपचन्द्र प्रभु की अनन्त गुण गरिमा से प्रभावित होकर कह उठते है'प्रभु तेरी महिमा को पावै ।' कविवर बुधजन भी 'प्रभु तेरी महिमा वरणी न जाई कहकर, इसी भाव को अभिव्यक्त करते हैं। इसीलिए भक्त कवि भावविभोर होकर कह उठते है-गणधर इन्द्र न करि सके तुम विनती भगवान । विनती प्राप निहारिक कीजै पाप समान । साधक गुण प्राराध्य कीर्तन कर उसके चिन्तवन मे अपने को लीन कर लेना है। उसके नाम स्मरण से ही उसकी सारी इच्छाये पूर्ण हो जाती हैं। उसके लिए भगवान काम धट-देवमणि और देवतरु के समान लगते हैं। भट्टारक कुमुदचन्द्र ने इसी तथ्य को 'नाम लेत सहू पातक चूरे' कहकर अभिव्यक्त किया है। मुनिचरित्रसेन नेमिनाथ के समाधिमरण का स्मरण करने के लिए कहते हैं जिससे अन्तःकरण का समचा विष नष्ट हो जाता है-'नेमि समाधि सुमरि जिय बिसु नासइ ।' प्रभु का स्मरण करके ब्रह्मरायमल्ल का मन अत्यत उत्साहित होता है-'तोह सुमिरण मन होइ उछाह तो हुआ छ अरु होय जी सी।' इससे पठारह दोष दूर हो जाते हैं और 1. निर्विकार निश्चल निकल निर्मल ज्योति ग्यानगम्य ग्यायक कहां लो ताहि बरनौं । निहर्च सरूप मन राम जिन जानौ ऐसी, नाको पौर कारिज रहयो न कछ करनी।। मनराम विलास, ठोलियों के दि. जैन मंदिर जयपुर में सुरक्षित हस्तलिखित प्रति, वेष्टन नं. 395. 2. वहज्जिनवाणी संग्रह, कलकत्ता से प्रकाशित । 3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 26. 4. वही, पृ. 206. 5. सीमन्धर स्वामी स्तवन-विनयप्रभ उपाध्याय, 6. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 17. 7. जैन पंचायती में दिल्ली में सुरक्षित हस्त. लि. प्र. .
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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