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________________ 156 प्रात्मचिन्तन के सन्दर्भ में साधक मात्मा के मूल स्वरूप पर उक्त प्रकार से विचार कर उसके साथ कर्मों के स्वरूप पर भी विचार करता है। इस विचारणा से उसके प्राra- art की प्रक्रिया ढीली पड़ जाती हैं, रागादिक भाव शिथिल हो जाते हैं तथा संवर- निर्जर का मार्ग प्रशस्त हो जाता है । 7. चित्तशुद्धि जैन रहस्य साधना मे चित्त शुद्धि का विशेष महत्व है। उसके बिना किसी भी क्रिया का कोई उपयोग नहीं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति के लिए अन्तः कारण का शुद्ध होना श्रावश्यक है । जो बाह्यलिंग से लिंग से रहित है वह फलतः आत्मपथ से भ्रष्ट और मोक्ष क्योंकि भाव ही प्रथम लिंग है, द्रव्यलिंग कभी भी परमार्थ प्राप्ति में कारणभूत नहीं होता । शुद्ध भाव ही गुण-दोष का कारण होता है। 2 बाह्य क्रिया से श्रात्महित नहीं होता इसलिए उसकी गणना बन्ध पद्धति मे की गई है। वह महादुःखदायी है। योगीन्दुमुनि और मुनिरामसिंह जैसे रहस्य साधकों ने कबीर से पूर्व बाह्य क्रियायें करने वाले योगियों को फटकारा है और अपनी आत्मा को धोखा देने वाले कहा है । चित्त शुद्धि के बिना मोक्ष कदापि प्राप्त नहीं हो सकता । " 4 बनारसीदास ने भी यही कहा कि यदि स्व-पर विवेक जाग्रत नहीं हुआ तो सारी क्रियाये श्रात्मशुद्धि बिना मिथ्या हैं, निरर्थक हैं। * मैया भगवतीदास भी प्रात्म शुद्धि के पक्षपाती थे ।" पांडे हेमराज ने इसी तरह कहा कि शुद्धात्म का अनुभव किये बिना तीर्थ स्थान, शिर मुंडन, तप-तापन श्रादि सब कुछ व्यर्थ है - "शुद्धातम अनुभौ बिना क्यों पावै सिवषेत 16 वही मोक्ष मार्ग का विशेष साधन है- युक्त है किन्तु प्रभ्यन्तर पथ का विनाशक है । 1 1. मोक्ख पाहुड़, 61 2. भाव पाहुड़, 2. 3. पाहुड़, दोहा 135, परमात्म प्रकाश, 2.70 ॥ 4. बनारसी बिलास, मोक्षपेड़ी, 8 T. 132. ब्रह्मविलास, शत अष्टोत्तरी 11, पृ. 10. 5. उपदेश दोहाशतक, 5-18. मदनमोहन पंचशती, छत्रपति, 99, पृ. 48. 6. 7. भाव बिना द्रव्य नाहि, द्रव्य बिना लोक नाहि, लोक बिना शून्य सब मूल भूत भाव हैं।"
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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