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________________ जैन साधकों ने धार्मिक बाह्याडम्बर को रहस्यसाधना में बाधक माना है। बाह्य क्रियामों से पात्महित नहीं होता इसलिए उसकी गणना बन्ध पद्धति में की गई है। बाह्य क्रिया मोह-महाराजा का निवास है, प्रज्ञान भाव रूप राक्षस का नगर है। कर्म और शरीर मादि पुद्गलों की मूर्ति हैं । साक्षात् भाषा से लिपटी मिश्री भरी छुरी, है। उसी के जाल में यह चिदानन्द प्रात्मा फंसता जा रहा है। उससे शान-सूर्य का प्रकाश छिप जाता है। प्रतः बाह्य क्रिया से जीव, धर्म का कर्ता होता है, निश्चय स्वरूप से देखो तो क्रिया सदैव दुःखदायी होती है। इस सन्दर्भ में पीताम्बर का यह कपन मननीय है-"भेषधार कहे मैया भेष ही में भगवान, भेष में न भगवान, भगवान न भाव में ।" बनारसीदास ने भी यही कहा है कि अम्बर को मैला कर देने वाला योग-मारम्बर किया, अग विभूति लगायी, मृगछाला ली और घर परिवार को छोड़कर वनवासी हो गये पर स्वर का विवेक जाग्रत नहीं हुमा ।। या भगवतीदास ने बाह्यक्रियामों को ही सब कुछ मानने वालों से प्रश्न किये कि यदि मात्र जलस्नान से मुक्ति मिलती हो तो जल में रहने वाली मछली सबसे पहले मुक्त होती, दुग्धपान से मुक्ति होती तो बालक सर्वप्रथम मुक्त होगा, मंग में विभूति लगाने से मुक्ति होती हो तो गषों को भी मुक्ति मिलेगी, मात्र राम कहने से मक्ति हो तो शुक भी मुक्त होगा, ध्यान से मुक्ति हो तो बक मुक्त होगा, शिर मुड़ाने से मुक्ति हो तो भेड़ भी तिर जायेगी, मात्र बस्त्र छोड़ने से मुक्त कोई होता हो तो पशु मुक्त होंगे, पाकाश गमन करने से मुक्ति प्राप्त हो तो पक्षियों को भी मोक्ष मिलेगा, पवन के खाने से यदि मोक्ष प्राप्त होता तो व्याल भी मुक्त हो जायेंगे । यह सब संसार की विचित्र रीति है । सब तो यह है कि तत्वज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। मिथ्याभ्रम से देह के पवित्र हो जाने से पात्मा को पवित्र मान लेते हैं, 1. नाटक समयसार, सर्वविशुद्धिद्वार, 96-971 2. बनारसीविलास, ज्ञानवावनी, 43 पृ. 871 3. जोग प्रडम्बर ते किया, कर मम्बर मल्ला । भंग विभूति लगायके, लीनी मृग छल्ला । है वनवासी ते तजा, घरबार महल्ला । मप्यापर न बिछारिणयां सब झूठी गल्ला । वही, मोक्षपडी, 8, पृ. 1321 शुद्धि ते मीनपियें पयवालक, रासभ अंग विभूति लगाये। राम कहे शुक ध्यान गहे वक, भेड़ तिर पुनि मूडमुड़ाये॥ वस्त्र विना पशु व्योम पले खग, व्याल तिरे मित पौम के साये । एतो सबै जड़ रीत विचक्षन ! मोक्ष नहीं बिन तस्व के पाये। (माविलास, मत अष्टोत्तरी, 11, पृ. 10)
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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