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________________ 119 विषय सेवन से उत्पन्न तृष्णा के खारे जल को पीने के बाद उसकी प्यास बढ़ती है, खाज खुजाने के समान प्रारम्भ में तो अच्छी लगती है पर बाद में दुःखदायी होती है। वस्तुतः इन्द्रिय भोग विषफल के समान है ।' बुधजन को तो आत्मग्लानि-सी होती है कि इस आत्मा ने स्वयं के स्वरूप को क्यों नहीं पहचाना । मिथ्या मोह के कारण वह अभी तक शरीर को ही अपना मांगता रहा । धतूरा खाने वाले की तरह यह प्रात्मा अज्ञानता के जाल में फंस गया हैं । इसलिए कवि को यह चिन्ता का विषय हो गया कि वह किस प्रकार शाश्वत सुख को प्राप्त करेगा ।" मोह से ही मिथ्यात्व पनपता है । इसलिए साधकों मोर आचार्यो ने इस मोह को विनष्ट करने का उपदेश दिया है । जब तक विवेक जाग्रत नहीं होता, मोह नष्ट नहीं हो सकता । यशपाल का मोहपराजय, वादिचन्द सूरि का ज्ञानसूर्योदय हरदेव का मयण-पराजय- चरिउ, नागदेव का मदनपराजय चरित मौर पाहल का मनकरहारास विशेष उल्लेखनीय हैं । बनारसीदास का मोह विवेक युद्ध इन्ही से प्रभावित है । अचलकीर्ति को माया, मोहादि के कारण संसार-सागर कैसे पार किया जाय, यह चिन्ता हो गई। मन रूपी हाथी घाठ मदों से उन्मता हो गया । तीनों मवस्थायें व्यर्थ गंवा दीं, अब तो प्रभु की ही शरण है । काहा करूँ कैसे तर भवसागर भारी ॥ टेक ॥ माया मोह मगन भयो महा विकल विकारी ॥ कहा ० ॥ सुमन-सा मंजारी । ज्यु प्रतिबल महंकारी || मन हस्ती मद ग्राठ, चित पीता सिंघ सांप मोह साधक का प्रबलतम शत्रु है । साधना के बाधक तत्वों में यदि उसे नष्ट कर दिया जाय तो चिरन्तन सुख भी उपलब्ध करने में प्रत्यन्त सहजता हो जाती है । इसलिए साधकों ने उसके लिए "महाविष" की संज्ञा दी है। इस तथ्य को सभी arati में स्वीकार किया गया है। उसकी हीनाविकता और विश्लेषण की प्रक्रिया में प्रन्तर अवश्य है । 1. परमार्थ दोहाशतक, 4-11, (रूपचन्द्रे), लूणकर मन्दिर, जयपुर में सुरक्षित प्रति । 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 245 1 3. "देषो चतुराई मोह कस्म की जगतें, प्रानी सब राषे भ्रम सानिकै ।" मनराम विलास, मनराम, 63, डोलियों का वि. जैन मंदिर जयपुर, वेष्टन नं० 395K 4. यह पद लूणकरजी पाण्डा मंदिर, जयपुर के गुटका नं. 114, पत्र 17.2-173 पर अंकित है ।
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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