SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 116 होता है। जीव परकीय वस्तु पर मुग्ध होकर स्वकीय वस्तु को छोड़ बैठता है। मोह का प्रबल प्रताप इतना तेज रहता है कि जीव उससे सदैव संतप्त बना रहता है। सुर नर इन्द्र सभी मोहीजन अस्त्र के बिना भी प्रस्त्रवान हैं। हरि, हर, ब्रह्मा मादिक महापुरुषों ने उसे छोड़ दिया पर जिन्होंने नहीं छोड़ा वे जीवन भर विलाप करते रहते हैं । इसलिए पं० रूपचन्द्र भावविभोर होकर बड़े प्राग्रह से जीव की सलाह देते हैं कि इस मोह को छोड़ो। इस पाप से दुःखी क्यों बने हो । जिस प्रकार पवन के झकोरों से जल में तरंगें उठती हैं वैसे ही परिवह मौर मोह के कारण मन चंचल हो उठता है । जैसे कोई सर्प का डंसा व्यक्ति अपनी रुचि से नीम खाता है वैसे ही यह संसारी प्राणी ममता-मोह के वशीभूत होकर इन्द्रियों के विषय सुख में लगा है । प्रनन्तकाल से इसी महामोह की नींद के कारण चतुर्गति में परिभ्रमण कर रहा है। मोह के कारण ही व्यक्ति एक वस्तु के अनेक नाम निर्धारित कर लेता है । उनके अनेकत्व को एकत्व में देखता है । कल्पित नाम को भी मोहवश तीनों अवस्थाओं में एकसा और यथार्थ मानता है । पर यह भ्रम है । उस भ्रम पर ही विचार क्यों नहीं कर लेता ? यदि उस पर विचार कर ले तो इस संसार से पार हो जायेगा। मोह से विकल होने पर जीव चेतन को भूल जाता है और देह में राग करने लगता है। सारा परिवार स्वार्थ से प्रेरित होता है । जन्म और मरण करने वाला प्राणी स्वयं अकेला रहता है पर वह सारे संसार का मोह बटोरे चलता है । वह सोचता है, यदि विभूति होती तो दान देता । और भी उसके मन में प्रपंच माते हैं जिनके कारण संसार में भ्रमण करता रहता है । वह बन्ध का कारण जुटाता है, पर मोक्ष प्राप्ति का उपाय नहीं जानता। यदि जान जाता तो भव-भ्रमण सहज ही दूर हो जाता। जीव के लिए उसका मोह सर्वाधिक महादुःखदाई होता है । मनादिकाल से मात्मा की अनन्त शक्ति को उसने छिपा दिया था। क्रम क्रम से उसने नरभव प्राप्त किया, फिर भी मोह को नहीं छोड़ा। जिस परिवार को अपना मानकर पाला-पोसा, वह भी छोड़कर चला गया, जन्म-मरण के दुःख भी पाये । इसका मूल कारण मोह है जिसका त्याग किये बिना परमपद प्राप्त नहीं हो सकता।' मोही बत्मा को 1. हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, पृ. 38। 2. वही, पृ. 41 तोहि अपनपी भूल्यो रे भाई, पद 55। 3. वही, पृ. 50। 4. बनारसीविलास, मानपच्चीसी 5-61 5. वही, नामनिर्णय विधान, 7 पृ. 1721 6. वही, अध्यात्मपद पंक्ति, 2-4 । 7. ब्रह्मविलास, परमार्थ पद पंक्ति,6।
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy