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________________ 114 ने माया और खाया को एक माना है क्योंकि ये दोनों क्षण-क्षण में घटती-बढ़ती रहती हैं। उन्होंने माया का बोझ रखने वाले की अपेक्षा खर पयवा रीछ को अधिक अच्छा माना। भूपरदास ने उसे ठगनी कहा है सुनि ठगनी माया, ते सब जग ठग खाया । टुक विश्वास किया जिन तेरा सो मूरख पछताया ।।सुनि ॥1॥ मामा तनक दिखाय बिज्जु ज्यों मूढ़मती ललचाया। करि मद अंध धर्महर लीनों, अन्त नरक पहुंचाया ॥ नि ।।2413 मानन्दधन भी माया को महाठगनी मानते हैं और उससे विलग रहने का उपदेश देते हैं अवधू ऐसो ज्ञान विचारी, वामें कोण पुरुष कोरण नारी । बम्मन के घर न्हाती पोती, जोगी के घर चेली ॥ कलमा पढ़ भई रे सुरकड़ी, तो आप ही माप अकेली। ससुरो हमारो बालो भोलो, सासू बोला कुंवारी ॥ पियुजो हमारो होई पारणिये, तो मैं हूं झुलावनहारी । नहीं हूँ परणी, नहीं हूँ कुवारी, पुत्र जणाबन हारी ॥ लोभ में भी सुख का लेश नहीं रहता । लोभी का मन सदैव मलीन रहता है। वह ज्ञान-रवि रोकने के लिए घराघर, सुकृति रूप समुद्र को सोखने के लिए कुम्भ नद, कोपादिको उत्पन्न करने के लिए अररिण, मोट के लिए विषवृक्ष, महादृढ़कन्द, विवेक के लिए राहु और कलह के लिए केलिमीन हैं। बनारसीदास ने सभी पापों का मूल लोभ को, दुःख का मूल स्नेह को और व्याधि का मूल अजीर्ण को बताया है। बुधजन का मन लोभ के कारण कभी तृप्त ही नहीं हो पाता। जितना भोग मिलता है उतनी ही उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है। इसलिए कभी उसे सुख भी नहीं मिलता ।' लोभ की प्रवृत्ति माशाजन्य होती है । भूधरदास ने पाशा को नदी मानकर 1. माया छाया एक है, घट बड़े छिनमाहि । इनकी संगति जे लगे, तिनहिं कहीं सुख नाहिं ॥16॥ वही पृ. 2051 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 154 । 3. आनन्दधन बहोत्तरी, पद 98 । 4. बनारसीविलास, माषा सूक्तावली, 58 5. बही, 19, पृ. 205, ब्रह्मविलास, पुण्यपीसिका, 11 पृ.4 । हिन्दी पद संग्रह, पृ. 1971 बुधजनविलास, 291
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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