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________________ नहीं पाता । ऐसी स्थिति में जगतराम कवि प्रस्त-सा होकर कहते हैं । 'मेरी कौन गति होसी हो गुसाई ॥ धानतराय को तो यह सारा संसार बिल्कुल मिथ्या दिखाई देता है । वे अनुभव करते हैं कि जिस नश्वर देह को हमने अपना प्रिय माना और जिसे हम सभी प्रकार के रसपाकों से पोषते रहे, वह कभी हमारे साथ चलता नहीं, तब अन्य पदार्थों की बात क्या सोचें? सुख के मूल स्वरूप को तो देखा समझा ही नहीं। व्यर्थ में मोह करता है। प्रात्मज्ञान को पाये बिना असत्य के माध्यम से जीव द्रव्याजंन करता, असत्य साधना करता, यमराज से भयभीत होता 'मैं' और 'मेरा' की रट लगाता संसार में घूमता घिरता है। इसलिए संसार की विनाशशीलता देखते हुए वे संसारी जीवों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं । 'मिथ्या यह संसार है रे, झूठा यह संसार रे । दौलतराम ने भी संसार को 'घोके की दाटी' कहा है और बताया है कि संसारी जीव जानबूझकर अपनी आंखों पर पट्टी बांधे हुए हैं । उसे समझाते हुए वे कहते हैं कि तेरे प्राण क्षण में निकल जायेंगे, तो तेरी यह मिट्टी यहीं पड़ी रह जायेगी । प्रतः अन्त.कपाट खोल ले और मन को वश में कर ले । संसारी जीव अनंतकाल से संसार में जन्म-मरण के चक्कर लगा रहा है । उत्पन्न होने से मरने तक दुःखदाह में जलता रहता है । भक्त कवि द्यानतराय को माता, पिता, पुत्र, पत्नी आदि सभी स्वार्थीप दिखाई देते हैं। शरीर का रतिभाव कवि को और भी विरागता की पोर जाने को बाध्य करता है। इसलिए इससे दूर होने के लिए वे ब्रह्मज्ञान का अनुभव आवश्यक मानते हैं। यही उनके लिए कल्याण का मार्ग है। इसी संदर्भ में भैया भगवतीदास ने चौपट के खेल में संसार का चित्रण प्रस्तुत किया है........चौपट के खेल में तमासो एक नयो दीस, जगत की रीति सब याही में बनाई है। यह संसार की विचित्रता है । किसी के घर मंगल के दीप जलते है, उनकी माशायें पूरी होती हैं, पर कोई मधेरे में रहता है, इष्ट वियोग से रुदन करता है, निराशा उसके घर में छायी रहती है। कोई सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण पहिनता, घोड़ों पर दौड़ता है पर किसी को तन ढांकने के लिए भी कपड़े नहीं मिलते। जिसे 1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 102. 2. वही, पृ. 130, 133. 3. जिया जग बोदे की दाटी........वही, पृ. 211. 4. ब्रह्मविलास, सुपथकुपथपचीसिका, 10, पृ. 181. .. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 154,
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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