SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संसारी जीव को अनंतकाल तक इस संसार में खेलते-भटकते हो गया पर कभी उसे इसका पश्चात्ताप नहीं हुमा । बह जुमा, मालस, शोक, भय, कुकथा, कौतुक, कोप, कृपणता, अज्ञानता भ्रम, निद्रा, मद और मोह इन तेरह काठियों में रमता रहा। जिस संसार में सदैव जन्म-मरण का रोग लगा रहता है, प्रायु क्षीरण होने का कोई उपाय नहीं रहता, विविध पाप और विलाप के कारण जुड़े रहते हैं, परिग्रह का विचार मिथ्या लगता रहता है, इन्द्रिय-विषय-सुख स्वप्नवत् रहता है, उस चंचल विलास में, रे मूद, तू अपना धर्म त्यागकर मोहित हो गया। ऐसे मोह प्रौर हर्ष-विषाद को छोड़ । जो कुछ भी सम्पत्ति मिली है वह पुण्य प्रताप के कारण । पर उसके परिग्रह और मोह के कारण तूने कर्मबंध की स्थिति बढ़ा ली। जब अन्त पायेगा तो यहां से अकेले ही जाना पड़ेगा। संसार की वास्तविक स्थिति पर साधक जब चिन्तन करता है तो उसे स्पष्ट प्राभास हो जाता है कि यह शरीर भी अन्य पदार्थों के समान शक्तिहीन होता चला जायेगा। बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक शरीर की गिरती हुई क्रमिक अवस्था को देखकर साधक विरक्त-सा हो जाता है। उसे सारा संसार नश्वर प्रतीत होने लगता है। जगजीवन को तो यह सारा संसार धन की छाया-सा दिखता है । उन्होंने एक सुन्दर रूपक में यह बात कही । पुत्र, कलत्र, मित्र, तन, सम्पत्ति प्रादि कर्मोदय के कारण जुड़ जाते हैं । जन्म-मरण रूपी वर्षा पाती है और माधव रूपी-पवन से वे सब बह जाते है। इन्द्रियादिक विषय लहरों-सा विलीन हो जाता है । रागद्वेष रूप वक-पंक्ति बड़ी लम्बी दिखाई देती है, मोह-गहल की कठोर भावाज सुनाई पड़ती है, सुमति की प्राप्ति न होकर कुमति का संयोग हो जाता है । इससे भवसागर कैसे पार किया जा सकता है । पर जब रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) का प्रकाश भोर मनंत चतुष्टय (अनंत दर्शन-ज्ञान-सुख-वीर्य) का सुख मिलने लगता है तब कवि को यह सारा संसार क्षणभंगुर लगने लगता है :-जगत सब दीसत बन की छाया । संसारी जीव अपनी मादतों से प्रत्यन्त दुःखी हो जाता है । वह न तो किसी प्रकार पंच पापों से मुक्त हो पाता है पोर न चार विकथामों से । मन, वचन, काय को भी वह अपने वश नहीं कर पाता, राग द्वेषादिक जम जाते हैं, प्रात्म-ज्ञान हो 1. बनारसी बिलास, तेरह काठिया, पृ. 157. 2. वही, प्रास्ताविक फुटकर कविता, पृ. 8-16, 3. वही, पृ. 12. 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 77.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy