SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में प्राप्त योगी की मूर्तियों में भी देखा जा सकता है, परन्तु जब तक उसकी लिपि का परिझान नहीं होता, इस सन्दर्भ में निश्चित नहीं का जा सकता । मुंडकोपनिषद् के ये शब्द चिंतन की भूमिका पर बार-बार उतरते हैं जहां पर कहा गया है कि ब्रह्म न नेत्रों से, न वचनों से, न तप से और न कर्म से गृहीत होता है। विशुद्ध प्राणी उस ब्रह्म को ज्ञान-प्रसाद से साक्षात्कार करते हैं न चक्ष षा गृह्मते, नापि वाचा नान्यदैवस्तपसा कर्मणा वा । ज्ञान-प्रसादेन विशुद्ध सत्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कले ध्यायमानः । रहस्यवाद का यह सूत्र पालि-त्रिपिटक और प्राचीन जैनागमों में भी उपलब्ध होता है । मज्झिमनिकाय का वह सन्दर्भ जैन-रहस्यवाद की प्राचीनता की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिसमें कहा गया है कि निगण्ठ अपने पूर्व कर्मों की निर्जरा तप के माध्यम से कर रहे हैं। इस सन्दर्भ से स्पष्ट है कि जैन सिद्धांत मे प्रात्मा के विशुद्ध रूप को प्राप्त करने का अथक प्रयत्न किया जाता था । ब्रह्म जालसुत में अपरान्सदिट्ठि के प्रसंग में भगवान बुद्ध ने मात्मा को प्ररूपी पौर नित्य स्वीकार किये जाने के सिद्धांत का उल्लेख किया है। इसी सुत्त में जैन-सिद्धांत की दृष्टि में रहस्य वाद व अनेकान्तवाद का भी पता चलता है। ___ रहस्यवाद के इस स्वरूप को किसी ने गुह्य माना और किसी ने स्वसंवेद्य स्वीकार किया। जैन संस्कृति में मूलतः इसका "स्वसंवेद्य" रूप मिलता है जब कि जैनेतर संस्कृति में गुह्य रूप का प्राचुर्य देखा जाता है। जैन सिद्धांत का हर कोना स्वयं की अनुभूति से भरा है उसका हर पृष्ठ निजानुभव और चिदानन्द चतन्यमय रस से प्राप्लावित है। अनुभूति के बाद तर्क का भी अपलाप नहीं किया गया बल्कि उसे एक विशुद्ध चिंतन के धरातल पर खड़ा कर दिया गया । भारतीय दर्शन के लिए तर्क का यह विशिष्ट स्थान-निर्धारण गैन संस्कृति का अनन्य योगदान है। रहस्य भावना का क्षेत्र प्रसीम है। उस अनन्तशक्ति के स्रोत को खोजना ससीम शक्ति के सामर्थ्य के बाहर है। प्रतः प्रसीमता पौर परम विशुद्धता तक पहुंच जाना तथा चिदानन्द-चंतन्यरस का पान करना साधक का मूल उद्देश्य रहता है । इसलिए रहस्यवाद किंवा दर्शन का प्रस्थान बिन्दु संसार है जहां प्रात्यक्षिक और अप्रात्यक्षिक सुख-दुःख का अनुभव होता है और साधक चरम लक्ष्य रूप परम विशुद्ध प्रवस्था को प्राप्त करता है। वहां पहुंचकर वह कृतकृत्य हो जाता है और अपना भवषक समाप्त कर लेता है। इस अवस्था की प्राप्ति का मार्ग ही रहस्य बना हुमा है। उक्त रहस्य को समझने मोर अनुभूति में लाने के लिए निम्नलिखित प्रमुख तत्वों को प्राधार बनाया जा सकता है :
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy