SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिस दिन वे मुनि ऊर्जयन्तगिरिपर पहुंचे उसकी पहली रात्रिको श्रीधरसेन मुनिने स्वप्नमें दो श्वेत बैलोंको अपने चरणों में पड़ते हुए देखा । स्वप्नके पश्चात् ज्यों ही वे " जयतु श्री. देवता " ऐसा कहते हुए जागके खड़े हुए त्यों ही उन्होंने देखा कि, वेणातटाकपुरसे आये हुए दो मुनि सन्मुख खड़े हैं। और अपने आगमनका कारण निवेदन कर रहे हैं । __ श्रीधरसेनाचार्यने आदरपूर्वक उनका अतिथि-सत्कार ( प्रापूर्णिक विधान) किया और फिर मार्गपरिश्रम शमन करनेके लिये तीन दिनतक विश्राम करने दिया। तत्पश्चात् यह सोचकर कि “सुपरीक्षा चित्तको शान्ति देनेवाली होती है " अर्थात् जिस विषयकी भली. भांनि परीक्षा कर ली जाती है, उसमें फिर किसी प्रकारकी शंका नहीं रहती है, उन्होंने उन दोनोंको दो विद्यायें साधन करनेके लिये दी, जिनमेंसे एक विद्यामें अक्षर कम थे और दूसरीमें आधिक थे । __ उक्त मुनियोंने श्रीनेमिनाथतीर्थंकरकी सिद्धाशलापर (निर्वाण भूमिपर ) जाकर विधिपूर्वक विद्याओंका साधन किया। परन्तु जो अक्षरहीन विद्या साध रहा था. उसके आगे एकआंखवाली देवी और अधिक अक्षर साधनेवालेके सम्मुख बड़ेदांतवाली देवी आकर खड़ी हो गई । यह देखकर मुनियोंने सोचा कि, देवताओंका यह स्वभाव नहीं है-यह असली स्वरूप नहीं है । अवश्य ही हमारी साधनामें कोई भूल हुई है। तब उन्होंने मंत्र व्याकरणकी विधिसे न्यूनाधिक वर्षों के क्षेपने और अपचय करनेके विधानसे मंत्रोकों १ वेणातटकपुर भी कहते हैं।
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy