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________________ इन्द्र छात्रका वेष धारण करके उस पाठशालामें एक ओर जाकर खड़े होगये और उसके व्याख्यानको सुनने लगे । इन्द्रभूतिने थोड़ी देरमें विराम लेते हुए जब कहा कि, “ क्यों तुम्हारी समझमें आया ? " और छात्र वृन्द जब कहने लगे कि, “ हां आया." तब इन्द्रने नासिकाका अग्रभाग सिकोड़कर इस प्रकारसे अरुचि प्रगट की कि, वह छात्रों की दृष्टिमें आगई। उन्होंने तत्काल ही उस भावका गुरु महाराजसे निवेदन करदिया । तब इन्द्रभूति ब्राह्मण इस अपूर्व छात्रसे बोला कि, " समस्त शास्त्रोंको मैं हथेलीपर रक्खे हुए आंवलेके समान देखता हूं और अन्यान्य वादी गणोंका दुष्ट मद मेरे सन्मुख आते ही नष्ट होजाता है। फिर कहो, किस कारणसे मेरा व्याख्यान तुम्हें रुचिकर नहीं हुआ । " इन्द्रने उत्तर दिया, " यदि आप सम्पूर्ण शास्त्रोंका तत्त्व जानते हैं. तो मेरी इस आर्याका अर्थ लगा दीजिये ! " और यह आर्या उसी समय पढ़के सुनाई पद्रव्यनवपदार्थत्रिकालपश्चास्तिकायषदकायान् । विदुषां वरः स एव हि यो जानाति प्रमाणनयैः ॥१॥ इस अश्रुतपूर्व और अत्यन्त विषम अर्थवाली आर्याको सुनकर इन्द्रभृति कुछ भी नहीं समझा । इसलिये वह बोला, तुम किसके विद्यार्थी हो। इन्द्रने उत्तर दिया “ मैं जगद्गुरु श्रीवर्धमान भट्टा १ छह द्रव्य, नव पदार्थ, तीन काल, पंचअस्तिकाय और छह कायोंको प्रमाणनयपूर्वक जानता है. वही पुरुष विद्वानोंमें श्रेष्ठ है। २ आर्याके शब्दोंका अर्थ कुछ कठिन नहीं है किन्तु उसमें जिन पदा. योकी संख्या बतलाई है, वह किसी भी दर्शनमें नहीं मानी गई है। इसीलिये इन्द्रभूति उसका अभिप्राय प्रगट नहीं कर सका था।
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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