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________________ रंसरहिरमंसमेदट्ठीमजसंकुलं मुत्तप्यकिमिबहुलं । दुग्गंधमसुचि चम्ममयमणिचमचेयणं पडणम्४५॥ रसरुधिरमांसमेदास्थिमज्जासंकुलं मूत्रपूयक्रिमिबहुलम् । दुर्गन्धं अशुचि चर्ममयं अनित्यं अचेतनं पतनम् ॥ १५॥ अर्थ-यह देह रस, रक्त, मांस, मेदा और मजा (चर्बी) से भरी हुई है, मूत्र, पीव और कीड़ोंकी इसमें अधिकता है, दुर्गन्धमय है, अपवित्र है, चमड़ेसे ढकी हुई है, स्थिर नहीं है, अचेतन है और अन्तमें नष्ट हो जानेवाली है। देहादोवदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतमुहणिलयो। चोक्खो हवेइ अप्पा इदि णिचं भावणं कुजा४६॥ देहात् व्यतिरिक्तः कर्मविरहितः अनन्तसुखनिलयः । _प्रशस्तः भवेत् आत्मा इति नित्यं भावनां कुर्यात् ॥ ४६ ।। अर्थ-वास्तवमें आत्मा देहमे जुदा है, कर्मोंसे रहित है, अनन्त सुखोंका घर है, और इमलिये शुद्ध है; इसप्रकार निरन्तर ही भावना करते रहना चाहिये । अथ आसवभावना । मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होति। १ यह गाथा हमको क्षेपक मालूम पड़ती है। क्योंकि इसमें कही हुई सब बातें ऊपरकी दो गाथाओंमें आ चुकी है। इसके सिवाय इममें विशेष्यका निदेश भी कहीं नहीं किया है। ऊपरकी गाथाओंसे मिलते जुलते आशयवाली देखकर इसे किसी लेखक वा पाठकने प्रक्षिप्त कर दी होगी, ऐसा अनुमान होता है।
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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