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________________ १२ उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारे ॥ २६ ॥ . 27 भू.का. उत्त सर्वस्मिन् लोकक्षेत्रे क्रमशः तन्नास्ति यत्र न उत्पन्नम् । अवगाहनेन बहुशः परिभ्रमितः क्षेत्रसंसारे ॥ २६ ॥ अर्थ – क्षेत्रपरावर्तनरूप संसार में अनेकवार भ्रमण करता हुआ जीव तीनों लोकोंके सम्पूर्ण क्षेत्रमें ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहांपर क्रमसे अपनी अवगाहना वा परिमाणको लेकर उत्पन्न न हुआ हो । भावार्थ-लोककाशके जितने प्रदेश हैं, उन सब प्रदेशों में क्रममे उत्पन्न होनेको तथा छोटेसे छोटे शरीरके प्रदेशोंसे लेकर बड़े बड़े शरीरतकके प्रदेशोंको क्रमसे पूरा करनेको क्षेत्रपरावर्तन कहते हैं । अवसप्पिणिउस्मप्पिणिसमयावलियासु णिखसेसासु । जादो मुदोय बहुमो परिभमिदो कालI संसारे ॥ २७ ॥ अवसर्पिण्युत्मर्पिणीसमयावलिकासु निग्वशेषासु । जातः मृतः च बहुशः परिभ्रमन् कालसंसारे ॥ २७ ॥ अर्थ- कालपरिवर्तनरूप संसारमें भ्रमण करता हुआ जीव उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालके सम्पूर्ण समयों और आवलियों में अनेक वार जन्म धारण करता है और मरता है । भावार्थ - उत्मर्पिणी और अवसर्पिणी कालके जितने समय होते हैं, उन सारे ममयों में क्रमसे जन्म लेने और मरनेको कालपरावर्तन कहते हैं । पिरयाउजहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लवा (गा) दु भूला. SF7
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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