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________________ अथ संसारभावना। पंचविहे संसारे जाइजरामरणरोगभयपउरे। " जिणमग्गमपेच्छंतोजीवो परिभमदि चिरकालं २४ __ पंचविधे संसारे जातिजरामरणरोगभयप्रचुरे । जिनमार्गमपश्यन् जीवः परिभ्रमति चिरकालम् ॥ २४ ॥ अर्थ-यह जीव जिनमार्गकी ओर ध्यान नहीं देता है, इमलिये जन्म, बुढ़ापा, मरण, रोग और भयसे भरे हुए पांच प्रकारके संसारमें अनादि कालमे भटक रहा है। सव्वेपि पोग्गला खलु एगे मुत्तुझिया हु जीवेण । असयं अणंतखुत्तो पुग्गलपरियट्टसंसारे ।। २५ ।। . सर्वेऽपि पुद्गलाः खलु एकेन मुक्त्वा उज्झिताः हि जीवेन ।, अमकृदनंतकृत्वः पुद्गलपरिवर्तसंसारे ॥ २५॥ का अर्थ-इस पुद्गलपरिवतनरूप संसारमें एक ही जीव सम्पूर्ण पुद्गलवर्गणाओंको अनेकवार-अनन्तवार भोगता है, और छोड़ देता है । भावार्थ-कोई जीव जब अनंतानंत पुद्गलीको अनंतवार ग्रहण करके छोड़ता है, तब उसका एक द्रव्यपरावर्तन होता है । इस जीवने ऐसे २ अनेक द्रव्यपरावर्तन किये हैं। सबम्हि लोयखेत्ते कमसो तण्णत्थि जण्ण उप्पण्णं। १ मध्वपि इत्यादि ५ गाथाएँ पूज्यपादस्वामीने अपने सर्वार्थगिद्धि ग्रन्थमें उद्धृत की है और इन्हीकी आनुपूर्वी छाया गोमटयार संस्कृतटीकाकी भव्यमार्गणाम केशववर्णाने उदत की है।
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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