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________________ २६ साधारण पूजकमें भी पाया जावे, इसलिये वह कदापि पूजकका लक्षण नहीं हो सकता । यदि ऐसा न माना जावे अर्थात् - इसको ऊंचे दर्जेके नित्य - पूजकका स्वरूप स्वीकार न किया जावे बल्कि, नित्य पूजक मात्रका स्वरूप वा दूसरे शब्दों में पूजकका लक्षण माना जावे तो इससे आज कलके प्रायः किसी भी जैनीको पूजनका अधिकार नहीं रहता। क्योंकि सप्त शीलव्रत और हिंसादिक पंच पापोंके त्याग रूप पंच अणुव्रत, इसप्रकार श्रावकके बारह व्रतोंका पूर्णतया पालन दूसरी (व्रत) प्रतिमामें ही होता है और वर्त्तमान जैनियोंमें इस प्रतिमा के धारक, दो चार त्यागियोंको छोड़कर, शायद कोई विरले ही निकलें ! इसके सिवाय जैनसिद्धान्तोंसे बडा भारी विरोध आता है । क्योंकि जैनशास्त्रों में मुख्यरूपसे श्रावकके तीन भेद वर्णन किये हैं - १ पाक्षिक, २ नैष्टिक और ३ साधक । श्रावकधर्म, जिसका पक्ष और प्रतिज्ञाका विषय है अर्थात् श्रावकधर्मको जिसने स्वीकार कर रक्खा है और उसपर आचरण करना भी प्रारंभ कर दिया है, परन्तु उस धर्मका निर्वाह जिससे यथेष्ट नहीं होता, उस प्रारब्ध देग संयमीको पाक्षिक कहते हैं । जो निरतिचार श्रावकधर्मका निर्वाह करनेमे तत्पर है उसको नैष्ठिक कहते हैं और जो आत्मध्यानमें तत्पर हुआ समाधिपूर्वक मरण साधन करता है उसको साधक कहते हैं । नैष्टिकश्रावकके दर्शनिक, व्रतिक आदि ११ भेद हैं जिनको ११ प्रतिमा भी कहते है । व्रतिक श्रावक अर्थात् - दूसरी प्रतिमावालेसे पहली प्रतिमावाला, और पहली प्रतिमावालेसे पाक्षिक श्रावक, नीचे दर्जेपर होता है । दूसरे शब्दोंमे यों कहिये कि पाक्षिकश्रावक, मूल भेदोंकी अपेक्षा, दर्शनिकसे एक और व्रतिकसे दो दर्जे नीचे होता है अथवा उसको सबसे घटिया दर्जेका श्रावक कहते हैं । परन्तु शास्त्रों में व्रतिक के समान, दर्शनिकहीको नहीं किन्तु, पाक्षिकको भी पूजनका अधिकारी वर्णन किया है, जैसा कि धर्मसंग्रहश्रावका I "पाक्षिकादिभिदा वा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यस्तन्निष्टो नैष्ठिकः साधकः स्वयुक ॥ २० ॥ - सागारधर्मामृते ।
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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