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________________ २५ कुलेन जात्या संशुद्धो मित्रबन्थ्वादिभिः शुचिः। गुरूपदिष्टमंत्राढ्यः प्राणिवाधादिदूरगः ॥१८॥" उपरके इन दोनों ग्रंथोंके प्रमाणोंसे भली भांति स्पष्ट है कि, शूद्रोंको भी श्रीजिनेंद्रदेवके पूजनका अधिकार प्राप्त है और वे भी नित्यपूजक होते हैं। साथ ही इसके यह भी प्रगट है कि शूद्र लोग साधारण पूजक ही नहीं, बल्कि ऊंचे दर्जेके नित्यपूजक भी होते हैं। यहांपर यह प्रश्न उठ सकता है कि, उपर जो पूजकका स्वरूप वर्णन कियागया है वह पूजक मात्रका स्वरूप न होकर, ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकका ही स्वरूप है वा उत्कृष्टकी अपेक्षा कथन किया गया है, यह सब, किस आधारपर माना जावे? इसका उत्तर यह है कि -धर्मसंग्रहश्रावकाचारके श्लोक नं. १४४ में जो “एष" शब्द आया है वह उत्तमताका वाचक है। यह शब्द "एतद" शब्दका रूप न होकर एक पृथक् ही शब्द है । वामन शिवराम आपटे कृत कोशमें इस शब्दका अर्थ अंग्रेजीमें desirable और to be desired किया है। संस्कृतमें इसका अर्थ प्रशस्त, प्रशंसनीय और उत्तम होता है । इसीप्रकार पूजासार ग्रंथके श्लोक नं. २८ में जहांपर पूजक और पूजकाचार्यका स्वरूप समाप्त किया है .हांपर, अन्तिम वाक्य यह लिखा है कि, "एवं लक्षणवानार्यो जिनपूजासु शस्यते।" (अर्थात् ऐसे लक्षणोंसे लक्षित आर्यपुरुष जिनेन्द्रदेवकी पूजामें प्रशंसनीय कहा जाता है।) इस वाक्यका अन्तिम शब्द "शस्यते" साफ बतला रहा है कि ऊपर जो स्वरूप वर्णन किया है वह प्रशस्त और उत्तम पूजकका ही स्वरूप है। दोनों ग्रंथोंमे इन दोनों शब्दोंसे साफ़ प्रकट है कि यह स्वरूप उत्तम पूजकका ही वर्णन किया गया है । परन्तु यदि ये दोनों शब्द (एप और शस्यते) दोनों ग्रंथों में न भी होते, या थोड़ी देरके लिये इनको गौण किया जाय तब भी, ऊपर कथन किये हुए पूजनसिद्धान्त, आचार्योंके वाक्य और नित्यपूजनके स्वरूपपर विचार करवसे, यही नतीजा निकलता है कि, यह स्वरूप ऊंचे दर्जेक नित्यपूजककों लक्ष्य करके ही लिखा गया है। लक्षणसे इसका कुछ सम्बंध नहीं है। क्योंकि लक्षण लक्षके सर्व देशमें व्यापक होता है । अपरका स्वरूप ऐसा नहीं है जो साधारणसे
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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