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जैन ग्रन्थरत्नाकरे
वस्तुछन्द ।
कलह मंडन मंडन करन उद्वेग । यशखंडन हित हरन, दुखविलापसंतापसाधन ॥ दुरबैन समुच्चरन, धरम पुण्य मारग विराधन । विनय दमन दुरगति गमन, कुमति रमन गुणलोप 1 ये सब लक्षण जान मुनि, तजहि ततक्षण कोप ॥ ४७ ॥ यो धर्म दहति द्रुमं दव इवोन्मध्नाति नीति लतां
दन्तीवेन्दुकलां विधुंतुद इव श्राति कीर्ति नृणाम् । स्वार्थ वायुरिवाम्बुदं विघटयत्युल्लासयत्यापदं
तृष्णां धर्म इवोचितः कृतकृपालोपः स कोपः कथम् ॥
पदपद ।
कोप धरम धन है, अग्नि जिम विरख बिनासहि । कोप सुजस आवरहि, राहु जिम चंद गरासहि || कोप नीति दलमलहि. नाग जिम लता विहंडहि । कोप काज सब हरहि, पवन जिम जलधर खंडहि || संचरत कोप दुख ऊपजै, बढ़ें त्रषा जिम धूपमहँ । करुणा विलोप गुण गोप जुत. कोप निषेध मंहत कहँ ॥ ४८ ॥
मानाधिकार.
मन्दाक्रान्ता ।
यस्मादाविर्भवति विततिर्दुस्तरापन्नदीनां यस्मिन्शिष्टाभिरुचितगुणग्रामनामापि नास्ति ।
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