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________________ १९ “चैत्यंचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदाऽर्च्चनम् ॥ २८ ॥ या च पूजा मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषङ्गिणी । स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः ॥ २९ ॥" श्रीसागारधर्मामृत में भी नित्यपूजनके सम्बंध में समग्र ऐसा ही वर्णन पाया जाता है, बल्कि इतना विशेष और मिलता है कि अपने घरपर या मंदिरजी में त्रिकौल देववन्दना - अरहंतदेवकी आराधना करनेको भी नित्यपूजन कहते हैं । यथाः "प्रोक्तो नित्यमहोऽन्वहं निजगृहानीतेन गन्धादिना । पूजा चैत्यगृहेऽर्हतः स्वविभवाच्चैत्यादिनिर्मापणम् ॥ भक्त्या ग्रामगृहादिशासनविधादानं त्रिसंध्याश्रया । सेवा स्वेऽपि गृहेऽचनं च यमिनां नित्यप्रदानानुगम् ॥२- २५ " धर्मसंग्रहश्रावकाचारमें भी “त्रिसंध्यं देववन्दनम् ” इस पदके द्वारा ९ वें अधिकारके श्लोक नं. २९ में, त्रिकाल देववन्दनाको नित्यपूजन वर्णन किया है । और त्रिकाल देववन्दना ही क्या, "बलि, अभिषेक (हवन), गीत, नृत्य, वादित्र, आरती और रथयात्रादिक जो कुछ भी नित्य और नैमित्तिकपूजनके विशेष हैं और जिनको भक्तपुरुष सम्पादन करते हैं, उन सबका नित्यादि पंच प्रकारके पूजनमें अन्तर्भाव निर्दिष्ट होनेसे, उनमें से, जो नित्य किये जाते है या नित्य किये जानेको है, वे १ इन दोनों श्लोकोका आशय वही है जो ऊपर अतिरिक्त शब्द के अन" दिया गया है । " न्तर २ आदिपुराणके श्लोक नं. २७,२८,२९ के अनुसार । ३ आदिपुराण में पूजन के अन्य चार नं. ३३ मे त्रिकाल देववन्दनाका वर्णन द्वारा किया है । भेदोका वर्णन करनेके अनन्तर श्लोक “त्रिसंध्या सेवया समम्” इस पद के
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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