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________________ ( ६१ ) कामों और मनोरथोंमें सफल हुए हैं, हम भी उनके साथ प्रसन्न हों मानो उनकी सफलता हमारी ही सफलता है । अर्थात् दूसरोंको अच्छी अवस्थामें देखकर वा सुनकर प्रसन्न हों और किसी प्रकारका द्वेष और ईर्ष्या न रक्खें । तीसरा प्रकार यह है कि जो अपनेसे दुर्बल हैं और अपने आपको बचा नहीं सकते उनकी रक्षा करना । देखो जो प्राणी और जन्तु गूंगे हैं और अपने भाव जिह्वासे प्रकट नहीं कर सकते उन बेचारोंकी रक्षा करना परम धर्म है । हमें सामर्थ्य और शक्ति इस लिए दी गई है कि दुर्बलोंकी रक्षा करें न कि उनको मार डालें । प्राण सबमें एक हैं चाहे छोटा प्राणी हो चाहे बड़ा, इस लिए जीवमात्रकी रक्षा करनी उचित है । 1 दूसरोंपर सहानुभूति दिखाने से हम औरोंकी सहानुभूतिको अपनी ओर आकर्षण करते हैं । सहानुभूति करना कभी वृथा नहीं जाएगा । यदि नीचसे नीच प्राणीपर भी सहानुभूति करोगे, तो उससे भी तुम्हें लाभ पहुंचेगा । मैंने कारागार में एक अपराधीकी सच्ची कहानी सुनी है। यह अपराधी बड़ा ही निर्दयी और कठोर हृदय था, उसके संशोधनकी कोई आशा नहीं रही थी और कारागारवालोंने भी उसे दुर्दम्य और दुर्दान्त समझ रक्खा था । एक दिन इसी अपराधीने एक डरपोक और डरी हुई चूहीको पकड़ लिया और उसकी बेबसीकी अवस्था देखकर उसके मनमें दया आगई । और पहले कभी मनुष्योंको देखकर उसके कठोर हृदयमें ऐसी दया उत्पन्न नहीं हुई थी । उसने चूहीको अपनी कोठड़ीके भीतर एक पुरानी जूतीमें
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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