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________________ ( ५७ ) को बदल दें तो उनकी बाह्य घटनाएं भी बदल जाएं । सम्भव है कि उनकी बाह्य अवस्थाएं वा घटनाएं चाहे वे कैसी ही विरुद्ध हों उनकी भीतरी दशासे इतना गाढ़ सम्बन्ध रखती हों कि यह घटनाएं उनके सुधार के लिए आवश्यक हैं और उनको अन्तमें यह बात विदित हो जायगी कि ऐसी घटनाओंका होना हमारे सुधारनेके लिए अवश्य था । संतोष प्राप्त करने के लिए यह भी अवश्य है कि हम चित्तमें किसी प्रकारका संभ्रम वा संशय न लाएं, क्योंकि जब हम दुविधा में होते हैं तो हमारे भीतर कलह होता रहता है, और हम शान्तिरूपी जलमें हल चल मचाया करते हैं और यदि इस संभ्रमको दूर न किया जायगा, तो शान्तिरूपी समुद्र की गहराइयों के भीतर से असन्तोषका भयानकरूप जलके ऊपर दिखाई देगा । इस विह्वलता और संभ्रमसे बचनेके लिए मनुष्य को चाहिये कि अपने विचार और खभावमें सदा सरलता और निष्कपटताके अटल नियम बतें । असन्तोषका एक बड़ा भारी कारण यह है कि हम यह सोचते रहते हैं कि और लोग हमारे विषय में क्या कहते होंगे । यदि मैं सीधे मार्गपर चल रहा हूं और ऋजुतासे काम ले रहा हूं, तो मुझे इस बातकी क्यों चिन्ता होनी चाहिये कि मेरे पड़ौसी मेरे विषय में क्या कहते होंगे ? लोगों के मत और विचार सदा बदलते रहते हैं परन्तु हमारे चाल चलन वा शीलके विषयमें ईश्वरकी जो न्यायपूर्वक सम्मति है वह तो हमारे ही बदलने से बदल सकती है। इस लिए मनुष्योंकी सम्मतियोंसे
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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