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________________ ( ११ ) धार्मिक पुरुष सदा आनन्द में मग्न रहता है । प्रत्येक वस्तुमें पवित्रताका होना उत्तम है, परन्तु हृदयकी पवित्रता वा विशुद्धताकी सब बड़ाई करते हैं और उसे प्राप्त करना चाहते हैं । पुण्य वा धर्म वा सात्त्विक वृत्ति निर्मल जलकी नाई है और प्रकाशका चिन्ह है, और पाप वा अधर्म वा तामसिक वृत्ति मैले और गंदले जलके समान है और अन्धकारका चिन्ह है । इस कारण यह बात अतीव आवश्यक है कि हम पवित्र शुद्ध और धार्मिक जीवन व्यतीत करें और तब ही हमको अपने जीवन में ऋद्धि सिद्धि और परम सुख मिल सकता है । I इससे पहले हम उन गुणोंका वर्णन कर चुके हैं जिनका बीज हमें अपने हृदय बोना चाहिये । वे गुण आज्ञापालन, समयानुसरण ( कालानुवृत्ति), परिश्रम, एकता और प्रेम, निष्कपटता, सरलता और सत्यवादिता है । इनके अतिरिक्त हमारे आचरण भी उत्तम होने चाहिये और हमें एक दूसरेके साथ मित्रता रखनी चाहिये । १. कभी २ ऐसा होता है कि तुम अपनी श्रेणीके किसी लड़केसे एक पुस्तक वा लेखिनी मांगी लेते हो और वह तुम्हें कृपा करके दे देता है, परन्तु तुम उस पुस्तकको लेते समय और उल्टा देते समय उसके अनुग्रहीत नहीं होते अर्थात् दोनों समय यह नहीं कहते कि मै आपका बड़ा अनुग्रहीत हूं । कभी २ तुम ऐसे अक्खड़ और अविनीत हो जाते हो कि उस वस्तुको दूरसे ही उसकी ओर फेंक देते हो तथा उस वस्तुको जहांका तहां पड़ा रहने देते हो और उसे लौटाकर नहीं देते । इस कारण वह वस्तु खोई जाती है और उसके खोए जानेका दोष तुमपर होता है ।
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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