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________________ १८३ किया है- (१), (२) निरंत, (३) (५) पत्रपुष्ट (४) र चपल्लसित रोषों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि वाचाय द्वारा निरूपित यह प्रकरण भी आचार्य मम्मट से पूर्ण प्रभावित है। हेमचन्द्र में career for foया है। शेष रसादि की स्वशब्दवाच्यता और प्रतिकूक farmers के arrer मम्मटसम्म यो अन्य दोषी को मानने में कोई faशेष हेतु प्रस्तुत नहीं किया है। साथ ही उन्होंने अन्य प्रकार से उन दो दोषों को स्वीकार भी किया है, जिनका यथास्थान विवेचन किया जा चुका है । रामere-goer ने केवल ५ रसदोषों का उल्लेख किया है, किन्तु उनकी मुल मान्यता यही है कि रसदोषो के प्रथम भेद अनौचित्य में हो अन्य सभी रसदोषों का अन्तर्भाव हो जाता है। रामचन्द्र गुणचन्द्र का यह मत निश्चय हो आनन्दवर्धन का प्रबल समर्थक है क्योंकि आनन्दवर्धन भी अनौचित्यादृते नान्यद रसभगस्य कारणम्' इत्यादि के द्वारा रसदोषो के मूल में अनौचित्य को ही स्वीकार करते हैं। नरेन्द्रप्रभसूरि और विजयवर्णी मम्मट के उपजीव्य है । पद्मसुन्दरमणि का रखदोष विवेचन कोई विशेष नहीं है । अजितसेन ने रसादि की स्वशब्दबाध्यता और अनुभावादि की प्रतिकूलता रूप मात्र दो रसदोषों का उल्लेख किया है। चैष वाग्भट प्रथम, वाग्भट द्वितीय और भावदेवसूरि आदि जैनाचायों ने रसदोषों का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु इससे यह अनुमान लगाना कि उन्हें रसदोष मान्य नहीं थे, उनके साथ अन्याय ही होगा । । इस प्रकार अब तक पदगत, पदांशगत, वाममंगत, अर्थगत और रसगतदोषों का उल्लेख किया गया है। तदनुसार मैनाचार्यों ने सामान्यत पूर्वाचार्यों को आधार मानकर अपना विवेचन प्रस्तुत किया है, किन्तु आवश्यकतानुसार कहींnai gawran ause करते हुए अपनी प्रबल युक्तियों द्वारा स्वमत का मण्डन भी किया है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि जैनाचायों द्वारा किया गया दोष विषय यह प्रयास स्तुत्य है । अत इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। भावरूप दोष परिहार : उपयुक्तों में से दोष आदि के औचित्य से या गुम बन जाते हैं। मंत्री नो दोष परिहार कहा गया है। यदि विस्तृत विवेचन किया जाएं तो इसका कैले दोष विवेचन के कम ही होगा। क्योंकि १. साहित्यचारण ४११२-१० +
SR No.010127
Book TitleJainacharyo ka Alankar Shastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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