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________________ जैनाचायों का अर्थकारशास्त्र में योगदान -सर्जना शक्ति दिखलाई देने से शक्ति ( प्रतिभा ) ही काव्य का हेतु है । इस खण्डन के मूल मे सिद्धिचन्द्रगणि पण्डितराज जगन्नाथ से प्रभावित प्रतीव होते हैं।' पण्डितराज जगन्नाथ केवल प्रतिमा को ही काव्य में हेतु मानते हैं, यह कही देवता अथवा महापुरुष के प्रसाद से उत्पन्न अदृष्ट रूप होती है मौर कही विलक्षण व्युत्पत्ति और अभ्यास से जन्य । 2 1 , उपर्युक्त काय हेतु विवेचन को ध्यान मे रखते हुए कहा जा सकता है कि आचार्य भामह ने काव्य हेतु प्रसग मे प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास इन तोनों का समान रूप से उल्लेख किया है, किन्तु प्रतिभा पर अधिक बल दिया है, अत. ऐसा प्रतीत होता है कि वे काव्य-हेतुओं में प्रतिभा को विशिष्ट मानते थे दण्डी ने यद्यपि प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास इन तीनो को समान रूप से स्वीकार किया है, किन्तु वे कही कहीं प्रतिभा के अभाव मे भी मात्र व्युत्पत्ति और अभ्यास के द्वारा काव्य-रचना स्वीकार करते है । अत इनका मत अन्य समस्त आचार्यों से पृथक् है । आनन्दवर्धन प्रतिभा को ही प्रमुख हेतु मानते हैं। मम्मट प्रतिमा, व्युत्पत्ति और अभ्यास के सम्मिलित रूप को काय हेतु स्वीकार करते हैं, जिसका समर्थन जैनाचार्य भावदेवसूरि ने भी किया है। भावदेवसूरि को छोडकर शेष समस्त जैनाचार्यों ने व्युत्पत्ति और अभ्यास से संस्कृत प्रतिभा को ही काय हेतु स्वीकार किया है, जिसका समर्थन परवर्ती प्रमुख विद्वान् पंडितराज जगन्नाथ ने किया है, जो इन मतों की विलक्षणता का परिचायक है । काव्य स्वरूप * किसी भी वस्तु का स्वरूप निरूपण करना असम्भव नही तो श्रमसाध्य अवश्य है । सामान्यत वस्तु का स्वरूप तब तक पूर्णत शुद्ध नही माना जाता है, जब तक कि वह बत्र्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव इन तीनों दोषो से रहित न हो । अत जिस स्वरूप में उपर्य क्त दोषो का अभाव होगा, वही शुद्ध स्वरूप माना जायेगा । प्राचीनकाल से अद्यावधि काव्य के स्वरूप पर विभिन्न आचार्यों ने विचार किया है। उपलब्ध काव्य-स्वरूपों में मामह-कृत काव्य-स्वरूप सबसे प्राचीन है । १ द्रष्टव्य न तु त्रयमेव बालादेस्तो बिनाऽपि केवलान महापुरुषप्रसादादपि प्रतिभोत्पत्ते । -- रसगंगाधर, पु० २९ । २ तस्प काव्यस्य ) कारणं कविगता केवला प्रतिभा । तस्याश्च हेतु क्वचिद महापुण्यप्रसादादिजन्यमदृष्टम् क्वचिच्च विलक्षणव्युत्पत्तिकाव्यकरणाभ्यासी । -वही, पृ० २७-२६ ।
SR No.010127
Book TitleJainacharyo ka Alankar Shastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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