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________________ सहायता मिलती है। इससे संकेत मिलता है कि वास्तु-पुरुष के केश, मस्तक, हवय, नानि आदि मर्म-स्थान जहाँ पड़ते हों, वहाँ स्तंभ नहीं बनाया जाए। मकान या मंदिर की भूमि (मंडल) पर पेट के बल (अधोमुख), या पीठ दौवारिक सुग्रीव पुष्पदंत वरुण असुर | शोष । रोग नाग वायव्य नैर्ऋत्य -- - इंद्रराज पुष्पदत | वरुण | भसुर शोरूद्रराम मुख्य शृंगराज मोराज | विवस्वत् विवस्वत् | मित्र भल्लाट | भल्लाट गंधर्व | गधर्व विवस्वत् मित्र कुबेर | कुबेर ब्रह्मन् // यम आर्य भूधर मृगदेव मृगदेव राक्षस राक्षस आर्य आर्य | भूधर भूधर अदिति अदिति सावित्र वितथ ( सविंद्र भृशदेव | सत्यक | इंद्र | भास्कर आपवत्स आप दीति पूषन् आग्नेय अंतरिक्ष भृशदेव | सत्यक इंद्र | भास्कर जयंत न - वास्तु-पुरुष मडल (अधोमुख) के बल (ऊर्ध्व-मुख), एक विशेष मुद्रा में लेटे हुए रेखांकित पुरुष - वास्तुपुरुष' की परिकल्पना का मूलस्रोत शोध का विषय है; परंतु उससे बहुत पहले 'लोकपुरुष' की अनूठी परिकल्पना जैनशास्त्रकार लिपिबद्ध कर चुके थे। पुराण-पुरुष' के रूप में प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ किंवा आदि-ब्रह्मा की प्रसिद्धि समूचे भारतीय साहित्य मे है। कालपुरुष', 'तुलापुरुष', लौहपुरुष', 'महापुरुष' आदि की परिकल्पनाएँ भी उल्लेखनीय हैं। जैन वास्तु-विधा
SR No.010125
Book TitleJain Vastu Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopilal Amar
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1996
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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