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________________ क्षेत्र की शुद्धता वास्तु के लिए देश और क्षेत्र का चयन मंदिर, मकान, कारखाना, किला, कॉलोनी, नगर आदि का निर्माण जिस देश या क्षेत्र में किया जाए; वह सभी दृष्टियों से सुंदर और सुविधासंपन्न हो—इस दृष्टि से भूमि के त्रुटिहीन चयन में सहायता के लिए जैनाचार्यों ने भूमि के (खनिज पदार्थों के) छत्तीस भेद किये हैं। विभिन्न देश वास्तु-विद्या में जांगल, अनूप और साधारण नाम से तीन भागों में रखे गए हैं। जांगल देश मरुस्थल होते हैं जिनमें जल की कमी, रेत की बहुतायत, कटीली झाड़ियाँ, तेज आंधी, काली मिट्टी होती है। अनप देश वे हैं, जो प्राकृतिक सुषमा-सम्पदा से भरपूर होते हैं। साधारण देशों में उपर्युक्त दोनों प्रकार के लक्षण होते हैं। तीनों प्रकार के देशों में प्राकतिक, भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक, व्यावसायिक आदि कारणों से क्षेत्रीय विभाग बन जाते हैं। ऐसे विभाग सोलह हो सकते हैं, जो यथानाम तथागुण हैं: बालिश-स्वामिनी, भोग्या, सीता-गोचर-रक्षिणी, अपाश्रयवती, कांता, खनिमती, आत्मचारिणी, वणिकप्रसाधिता, द्रव्यवती, अमित्र-घातिनी, अश्रेणि-पुरुषा, शक्य-सामन्ता, देव-मातृका, धान्य-शालिनी, हस्ति-वनोपेता और सुरक्षा। नौवीं शती में आचार्य जिनसेन ने 'आदि-पुराण के सोलहवें पर्व में नगर-निवेश के कई पक्ष व्यावहारिकरूप में प्रस्तुत किये हैं। देशों के वर्गीकरण का उनका आधार द्रष्टव्य है: नदी-नहरों के जल से सिंचित देश अदेवमातृक, प्राकृतिक वर्षा से सींचे गये देश देवमातृक और दोनों से सिंचित देश साधारण कहलाते हैं (श्लो. 157)। सुकोशल और अवंति से लेकर शक और केकय तक (रलो. 152-58) बावन देशों के नाम देते हुए वे लिखते हैं कि “उनमें तीनों प्रकार के देश थे। उनकी सीमाओं पर सब ओर किलाबंदी थी और अंतपाल (सीमारक्षक) नियुक्त थे। उन देशों के मध्य में और भी अनेक देश थे जिनकी रक्षा लुबक, आरण्य, घरट, पुलिंद, शबर आदि जातियों के लोग करते थे। उन देशों में कोट, प्राकार
SR No.010125
Book TitleJain Vastu Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopilal Amar
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1996
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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