SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "पूर्वशान विदिग्भागे शान्त्यर्थ जगतामिहा" (पूजापाठ, 11, पृ० 37) वृहत्कल्पसूत्र' (457, पृ० 113) में भी कहा गया है-"उत्तर-पुवा पुज्जा।" इसकी टीका में स्पष्ट किया गया है कि "उत्तर-पूर्वा च लोके पूज्या।" अर्थात् लोकदृष्टि से उत्तरपूर्व दिशा-ईशानकोण को पूज्य माना गया है। यह एक विचारणीय बिन्दु है कि किसी दिशा को 'पूज्य' जैसी पदवी का प्रयोग किस दृष्टि से किया गया? तथा यह भी विचार करें कि पेंच (स्कू) का कसना, पखे का घूमना, चक्की का चलना, नक्षत्रों की गति. चक्रवर्ती का विजय अभियान, घड़ी की सुई इत्यादि अनेकों लौकिक कार्य उत्तर से दक्षिण की ओर ही गतिमान होते हैं; विपरीत किये जाने पर इनसे हितसाधन नहीं होता-इसका क्या कारण है? यह क्या संयोगमात्र है अथवा अन्य कोई तथ्य भी इसके पीछे है? -यह गंभीरतापूर्वक अन्वेषणीय है। सभवत. इसी में उत्तरपूर्व दिशा (ईशानदिशा) को पूज्य कहने का रहस्य निहित हो। कतिपय विद्वानों ने वास्तु को 'देव' संज्ञा भी दी है। किन्तु यह न तो कोई अरिहतादि की तरह पूजनीय देव हैं,और न ही कोई स्वर्ग के देव है। यह तो हमारे लिये बाह्य अनुकूलता का साधन होने से सम्मानार्थ प्रयुक्त पद है। जैसकि लोक मे 'अतिथिदेवो भव' की परिकल्पना मात्र सम्मानार्थ है। भारतीय सस्कृति मे हितकारी व्यक्ति, वस्तु एवं स्थान आदि को सम्मान देने की परम्परा का ही एक निदर्शन वास्तुदेव' शब्द है। वास्तुशुद्धि, भूमिपूजन, गृहप्रवेश आदि समस्त वास्तु-प्रसंगों में जैनविधि से जो पूजन की जाती है, वह मात्र नवदेवताओ (पचपरमेष्ठीजिनचैत्य-चैत्यालय-जिनवाणी-जिनधर्म) की ही होती है, अन्य किसी सासारिक रागी-देवी-देवता की नही। -यह तथ्य भली-भॉति स्पष्टरूप से समझ लेना चाहिये। प्रख्यात वास्तुशास्त्री विद्ववर्य पं० बाहुबलि जी उपाध्ये द्वारा 1973 ई० मे श्रवणबेलगोल मे वास्तुशास्त्रीय दृष्टि से परिष्कार करने के बाद उस क्षेत्र की चहुँमुखी उन्नति एवं प्रतिष्ठा हमारे सबके समक्ष वास्तुशास्त्र के महत्त्व का उपयोगी निदर्शन है। अस्तु, द्वादशागी जिनवाणी के बारहवें अग के अन्तर्गत वर्णित चौदह (14) पूर्वो मे तेरहवे (13) पूर्व क्रियाविशाल' की अन्तर्गता वास्तुविद्या' पर जैनशासन में भले ही कोई स्वतंत्र आगमग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो; तथापि (जैन वास्तु-विधा XV -
SR No.010125
Book TitleJain Vastu Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopilal Amar
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1996
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy