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________________ सम्पादकी आधुनिक विधि से लिखित पुस्तकें अपने आप में यथासंभव व्यवस्थित प्रक्रिया के अन्तर्गत निर्मित होने से उनमें 'सम्पादन' के विशेष अवकाश या अपेक्षा का अनुभव नहीं किया जाता है; तथापि आजकल प्रचलित अनेकों विधियों एवं शैलियों में से किस विधि या शैली का अनुसरण करके विषय को व्यवस्था प्रदान की जाय – इसका निर्धारण करने के लिये सम्पादक को निर्देश करना अपेक्षित होता है; ताकि पाठकों को विषय को व्यवस्थित ढंग से समझने में अनुकूलता रहे। प्रस्तुत कृति में सम्पादन की दृष्टि से तीन बिन्दु विशेषतः विचारणीय हैं-प्रथम तो शोधपरक शैली में तथ्यात्मक प्रस्तुतीकरण होने से इसमें आधार-ग्रन्थों का उल्लेख होना अपेक्षित था। किन्तु बीच-बीच मे उद्धरणों की अधिकता विषय को प्रायः बोझिल बना देती है तथा प्रवाह भी भंग होता है। अतः विषय को सुगम एवं गतिशील बनाये रखने के लिये बीच में उद्धरण देने से यथासंभव बचा गया है। तथा जहाँ अपेक्षित था, वहाँ शीर्षक्रमांक (रिफ्रेंस नम्बर) डालकर पुस्तक के अन्त मे उनके उद्धरण सप्रमाण दिये गये हैं। दुसरे उन्हें (रिफ्रेंस नम्बर्स को) सामान्यतः क्रमिकरूप से आदि से अन्त तक निरन्तर दिया गया है, तथापि कहीं-कहीं एक ही विषय का पुन: प्रसगवशात् आगे उल्लेख होने पर उसे पुनः वही शीर्ष क्रमांक (रिफ्रेस नम्बर) दिया गया है, जो प्रथम बार उस विषय का उल्लेख आने पर दिया गया था। इस शैली को अपनाकर एक ही उद्धरण बार-बार देने की दुविधा एव अधिक जगह भरने की परेशानी से मुक्ति पायी है। तीसरे पारिभाषिक शब्दावलि का परिचय एवं सन्दर्भ-ग्रन्थों के सस्करण आदि का विवरण भी अन्त में दिया गया है। ताकि ग्रन्थ मे आगत विशेष पदो (टेक्नीकल टस) को पाठक सरल एंव परिचित शब्दावलि मे समझ सकें। तथा 'जो सन्दर्भ दिये गये हैं, वे उस ग्रंथ के किस संस्करण से उदधृत हैं - यह तथ्य स्पष्ट हो सके। क्योंकि एक ही ग्रन्थ के भिन्न-भिन्न स्थानों से प्रकाशित सस्करणों के पाठों, पद्य क्रमांकों एवं पृष्ठ संख्या आदि में प्रायः अंतर होता है। अत. इस भ्रम का निवारण करने के लिए सन्दर्भ (जन वाल विज
SR No.010125
Book TitleJain Vastu Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopilal Amar
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1996
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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