SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बाद मे इस सदर्भ में जो विधान किए गए, वे जीर्णोद्धार के पक्ष मे कम और विपक्ष मे अधिक प्रतीत होते हैं 66 उन विधाओ से यह निष्कर्ष निकलता है कि मूर्ति का जीर्णोद्धार उसी हद तक उचित है, जिस हद तक मानव शरीर की शल्य क्रिया; शरीर की भाँति मूर्ति का भी अगुलि आदि छोटा अग कटफट जाने पर उसका उपचार या जीर्णोद्धार कराया जा सकता है, लेकिन हाथ-पैर आदि बडा अग कट जाने पर किया गया उपचार उसे मौलिकरूप मे कभी नहीं ला सकता । मूर्तियों के जीर्णोद्धार का विधान शायद सबसे पहले ग्यारहवीं शताब्दी के अत मे आचार्य विश्वकर्मा ने 'दीपार्णव ग्रथ' के 'जिन-दर्शन' नामक इक्कीसवें अध्याय के पाँच श्लोको मे किया 167 इन श्लोको का अर्थ है: नख, केश, आभूषण आदि और शस्त्र, वस्त्र आदि अलकार के खंडित होने से विषम (व्यगित ) हुई मूर्ति से मगल की कामना नही करनी चाहिए; बल्कि शांति, पुष्टि आदि कराकर उसे पुनः समरूप बनवाकर रथोत्सव करना चाहिए. उसके बाद पूजा की जाने पर ही वह मूर्ति शुभकारक होगी। परंतु अग, उपाग और प्रत्यग के व्यगित (खंडित) होने से दूषित हुई मूर्ति का विसर्जन कर देना चाहिए और उसके स्थान पर दूसरी मूर्ति स्थापित कर देना चाहिए क्योकि जो मूर्तियॉ खडित हो जाएँ, जल जाएँ, चटक जाएँ या फट जाएँ उनका मंत्र द्वारा संस्कार नहीं हो सकता, उनमें से देवत्वशक्ति चली जाती है। उत्तम पुरुषो द्वारा स्थापित की गई प्राचीन मूर्ति व्यगित होने पर भी पूज्य रहेगी, उसकी पूजा निष्फल नहीं होगी । 'वत्थु सार-पयरण' मे भी तीन गाथाओं में मूर्तियो के जीर्णोद्धार का विधान है / उत्तम पुरुषों द्वारा स्थापित प्रतिमा यदि पुरानी हो चुकी हो, तो वह व्यगित हो जाने पर भी पूजी जाती रहे; उसे पूजना निष्फल नही होगा । जीर्णोद्धार का मनोविज्ञान मदिरो और मूर्तियों के जीर्णोद्धार के पीछे जो मनोविज्ञान होता है, उसका विश्लेषण उपर्युक्त पुस्तक, ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन एड ईस्टर्न आर्किटेक्चर', के पृष्ठ 68 पर सुदर ढंग से हुआ है; उसका अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है: किसी स्थापत्य शैली में पाँच-छह शताब्दियों से लगातार हो रहे एक-जैसे परिवर्तन देखते-देखते किसी भी देश में एक ऐसी आदत पनप (जैन वास्तु-विद्या 82
SR No.010125
Book TitleJain Vastu Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopilal Amar
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1996
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy