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________________ मौसम के निर्दय थपेड़ों और आततायियों की निर्मम तोड़-फोड़ का स्मरण आते ही मंजूर करना पड़ता है कि तिलोयपण्णत्ती और तत्सदश ग्रंथों के विवरण काग़ज़ पर ही न रहते होंगे, उन पर अमल भी किया जाता होगा। ___ उक्त लेख में आए विवरणों से देवों के रहन-सहन, तौर-तरीकों, धार्मिक मान्यता, वर्ग-विभाग आदि पर विशद प्रकाश पड़ता है। यदि इन विवरणों का आदर्श तत्कालीन मनुष्यों से लिया गया माना जाए; तो गुप्तकालीन संस्कृति और सभ्यता हमारे समक्ष और भी अधिक विस्तत. स्पष्टतर एवं सप्रमाण हो उठेगी। विजय' नामक देव तत्कालीन सम्रादः का तो नहीं, पर उनके एक औसत क्षत्रप या सामंत का प्रतीक अवश्य माना जा सकता है। इस लेख में आए विवरण स्त्रियों की दशा पर भी अच्छा प्रकारा डालते हैं। वे विविध कलाओं में निपुण होती थीं। बहुपत्नी प्रथा का उन दिनों जोरदार प्रचलन था, परन्तु स्त्रियों और पुरुषों में सदाचार पर बल दिया जाता था। इन विवरणों से तत्कालीन धार्मिक मान्यता का भी अच्छा परिज्ञान होता है। प्रत्येक नगरी मे जैनमंदिर अवश्य हुआ करता था। जैनमदिरों में समय-समय पर धर्मोत्सवों का आयोजन हुआ करते थे। सुधर्मा समा' कदाचित धार्मिक व्याख्यानो और स्वाध्याय के उपयोग में आती थी। इसीप्रकार 'अभिषेक सभा मे कदाचित तीर्थकर की मूर्ति के अभिषेक आदि अनुष्ठान संपन्न होते थे। तिलोयपण्णत्ती' मे द्वितीय जबूद्वीप आदि कुछ और भी ऐसे विषय हैं, जिनका उल्लेख अन्यत्र नहीं मिलता-इस दृष्टि से भी यह ग्रंथ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आशा है, इस तथा ऐसे ही अन्य ग्रंथों को धार्मिक अध्ययन के अतिरिक्त वास्तु-विद्या, इतिहास, भूगोल, खगोल, संस्कृति, समाज आदि के अध्ययन का भी विषय बनाया जाएगा। वीर संगा मंदिर पु. कालय
SR No.010125
Book TitleJain Vastu Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopilal Amar
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1996
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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