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________________ (२६८ ) का उघाड है जो अपना कल्याण कर सकते हो। शरीर से सर्वथा भिन्न अपने को जानो-मानो आचरण करो तो बेडा पार हो जायेगा। अरे भाई यह कार्य आसान है। प्र० २८-कल्याण कब तक नहीं होगा ? उत्तर-जब तक शरीर, गरीर की क्रिया और राग अपना भासित होगा तब तक धर्म की गध भी नही आ सकती है। जैसे हिजडो के कभी भी पुत्र की प्राप्ति नही हो सकती है उसी प्रकार जिसे शरीर मे व राग में अपनापना भासेगा उसे धर्म की प्राप्ति नही हो सकती है। प्र० २६-आत्मा कैसा है ? उत्तर-ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि अनन्त गुणो का धाम है। इसमे इतना माल भरा है कि अरबो ३३ सागर तक निकाला जावे तो भी खजाना समाप्त न होगा। प्र० ३०-स्व-पर क्या है ? उत्तर-स्व (१) अमूर्तिक प्रदेशो का पुज-मुझ आत्मा का क्षेत्र है । (२) प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो का धारी-मुझ आत्मा का भाव है। (३) अनादिनिधन-मुझ आत्मा का काल है। (४) वस्तु आप है मुझ आत्मा द्रव्य है। पर-(१) मूर्तिक पुद्गल द्रव्यो का पिण्ड-कैलाशचन्द्रका क्षेत्र है। (२) प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो से रहित-स्पर्श-रस-गध वर्णादि सहित कैलाशचन्द्र का भाव है । (३) नवीन जिसका सयोग हुआ है-यह कैलाशचन्द्र का काल है । ऐसे गरीरादि कैलाशचन्द्र पुद्गल पर है। प्र० ३१-शरीरादि के विषय मे क्या विचार करना ? उत्तर- जैसे कम्बल, रसगुल्ला, कमीजादि है उसी प्रकार यह शरीर है । हे भव्य आत्माओ । तुम्हारा दूसरी आत्मा से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है। तब फिर अचेतन जड रुपी शरीर से तुम्हारा सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? सावधान-सावधान । एकबार शरीर से भिन्न अपने को मान किसी से पूछना नही पडेगा।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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