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________________ ( २२५ ) होने पर भी जहाँ पर जन्म-मरण के अभाव की वात चलती है, उसके बदले अन्य बात का विचार करता है, ऊघता है या अन्य अस्थिरता करता है। वह जीव उस समय वायुकाय ही है, क्योंकि "जैसी मतिवैसी गति" होती है । (२) यदि अस्थिरता के भावो के समय आयु का बन्ध हो गया तो "वायुकाय" की योनि मे जाना पड़ेगा, जहाँ निरन्तर अस्थिरता ही बनी रहेगी। प्र० ३०७-कोई कहे हमें वायुकाय नही बनना है तो हम क्या करें? उत्तर-अस्थिरता के भावो से रहित परमपररिणामिक है भाव । उसकी ओर दृष्टि करे तो वायुकाय की योनि से नहीं जाना पडेगा, बल्कि कम से पूर्णक्षायिकपना प्रगट करके पूर्ण सुखी हो जावेगा। प्र० ३०८-दिगम्बर धर्म व मनुष्यभव होने पर भी क्या यह जीव 'वनस्पतिकाय' कहला सकता है, और यह वनस्पतिकाय में क्यों जाता है ? उत्तर-जैसे बाजार से सब्जी लाते है, आप उसे चाकू से काटते है, वह आपसे कुछ नही कहती है, उसी प्रकार मनुष्यभव पाने पर भी 'मैं दूसरो को ऐसा मारू, वह एक पग भी न चल सके-ऐसा भाव करता है वह उस समय वनस्पतिकाय ही है, क्योकि 'जैसी मति वैसी गति होती है । (२) यदि ऐसे भावो के समय आयु का बन्ध हो गया तो वनस्पतिकाय की योनि मे जाना पडेगा, जहाँ एक-एक समय करके निरन्तर दुख उठाना पड़ेगा। प्र० ३०६-कोई कहे हमें 'वनस्पतिकाय' में न जाना पड़े, इसका कोई उपाय है ? ___ उत्तर-मैं सबको मारू और वह एक पग भी आगे न बढ सकेऐसे-ऐसे भावो से रहित तेरी आत्मा का अस्पर्श स्वभाव है उसका आश्रय ले तो वनस्पतिकाय की योनि मे नही जाना पडेगा-बल्कि गुण स्थानमार्गणा से रहित परमपद को प्राप्त करेगा।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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